कलम का सिपाही बोल रहा हैं। ( भाग ४ )

कलम का सिपाही बोल रहा हैं 
                       ( भाग ४ )       
 
kalam ka sipahi bol pada hain, hindi kavita


मैं नहीं कुछ कहना चाहती हूँ,
मेरा हृदय तो मौन पड़ा हैं।
देखकर नवजात शिशुओं का तिरस्कार,
भावुक कलम का सिपाही बोल पड़ा हैं।
ये सोच व्यथित मन रो पड़ता हैं,
किस हृदय से शिशु को फेंका होगा।
कली समान कोमल शिशु को धरते धरा पर,
क्या पाषाण हृदय पल भर को न पिघला होगा।
वह नवजात शिशु तो ये भी न जाने,
किस कोख से उसने जन्म लिया हैं।
क्या अपराध हुआ जन्म लेते ही कि, 
दंडस्वरूप उसे यूं त्याग दिया हैं।
कमल नयन ज्यौं ही खोले होंगे,
स्वयं को गहन अंधकार में पाया होंगा।
मातृत्व ताप की लघु लालसा में,
पंखुड़ि समान गुलाबी होंठो से न जाने कितना रोया होंगा।
माँ लाड लगाकर बाँहों में भर ले,
ये सोच हाथ पैर छटपटाएँ होंगें।
उस कोमल काया ने, कठोर धरा में,
 ना जाने कितने प्रहार सहें होंगे।
 कभी भूख - प्यास से गला सूखा होंगा,
 तो कभी माँ के दूध को तरसा होगा।
कभी पशु - पक्षियों ने प्रहार किये होंगे,
कभी कोमल तन पर कोई शूल चुभा होंगा।
जब शिशु का सारा संसार माँ की गोदी होती हैं,
तब शिशु को छोड़ बाह्य जगत में माँ ने ही दुर्भाग्य लिखा होंगा।
जब शिशु को लोरी गाकर माँ बांहों में सुलाती हैं,
तब शिशु का रोता स्वर किसी ने न सुना होंगा। ;
कभी शीतल पवन से वह नव पल्ल्वित तन,
थर - थर - थर - थर  काँपा होंगा।
तो कभी सूर्य किरणों की तेज तपिश से,
वह नव कोंपल सामान शिशु झुलसा होंगा।
तो कभी माँ के हाथों लिखे दुर्भाग्य को देख दयावश,
उसको स्वयं महाकाल ने अपने अंक में भर लिया होंगा।
यदि उसके जीवन में संघर्ष अभी बाकि होगा तो,
किसी फ़रिश्ते ने आकर उसको बाँहों का आसरा दिया होगा।
उस मासूम सौन्दर्य का माथा चूमते हुए,
उसका हृदय वात्सल्य से भर आया होगा।
ईश्वर कभी तू ऐसी स्त्री को माँ बनने का सौभाग्य न देना,
बस यहीं एक विचार उसके मन में आया होगा।
जन्म देकर जिसने तुझको निर्ममता से धरा पर फेंक दिया,
कैसी वो घृणित स्त्री होगी, कैसा घृणित उसका हृदय होगा।

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