( भाग ३ )

मुझे नहीं कुछ कहना होता हैं,
मेरा मन तो मौन पड़ा हैं।
समाज में हो रहे दुराचार को देखकर,
स्वयं कलम का सिपाही बोल पड़ा हैं।
ये संवेदनाएं हैं मेरी उन स्त्रियों के लिए,
जो दरिंदों की हवस का शिकार हो जाती हैं।
जिनमें अंकुरित हो जाते हैं हैवानियत के बीज,
और वो एक अनचाही- सी धरा बन कर रह जाती हैं।
क्यों जन्म देती हैं माँ बनकर उन बीजों को,
जो अनचाही प्रताड़ना से अंकुरित हो जाते हैं।
क्यों सींचती हैं उसे अपने लहू के कतरे - कतरे से,
क्यों जन्म पश्चात् उन्हें अनाथालयों, सड़कों पर छोड़ आते हैं।
माना शीलभंग एक अमानवीय घटना हैं,
कोमलांग सौन्दर्य पर शक्ति प्रहार हैं।
पर बेक़सूर होता हैं वो जन्म लेने वाला शिशु,
ये तो अबला नारी के समक्ष पौरुष की प्रत्यक्ष हार हैं।
माना कि अस्मिता भंग होने का परिमाण हैं शिशु,
और ना तेरी इच्छा इस तरह से माँ बनने में हैं ,
पर शिशु को भूखा - प्यासा मरता छोड़ देना कैसा न्याय हैं।
पूर्ण न्याय तो ऐसे दानवों का संहार करने में हैं।
क्यों तू समाज के भय से अपनी व शिशु की मृत्यु को चुनती हैं,
क्यों नहीं तू उस दानव की संहारक बन जाती हैं।
ऐसे पुरुष स्वयं स्त्री समक्ष नग्न - नृत्य करते हैं,
और तू अश्रु बहाकर स्वयं अपावन बन जाती हैं।
वो कायर; पिता तो क्या पुत्र, पति बनने के लायक नहीं हैं,
जो चीरहरण करने के लिए स्त्री पर ताकत आजमाता हैं।
पर तू क्यों नन्हीं जान को सड़कों पर मरता छोड़ आती हैं,
तू तो नौ महीने गर्भ में रक्त से सींचने वाली माता हैं।
कुमाता बनने से अच्छा हैं, तू तेज धार तलवार बन,
तू दहकती ज्वाला बन, तू काल बन प्रहार कर।
जो स्त्री अस्मिता भंग करने को एक भी कदम बढ़ाएं,
तू काली बन ऐसे दुराचारियों का आगे बढ़ नरसंहार कर।
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