( भाग २ )
मुझे कहाँ कहना होता हैं,
मेरा ह्रदय तो मौन पड़ा हैं।
जब नवजात शिशुओं को फेंका देखा,
ये कलम का सिपाही फिर बोल पड़ा हैं।
ये शब्द बाण हैं उन स्त्रियों के लिए,
जो स्वेच्छा से कुकृत्य में संलग्न हो जाती हैं।
पल दो पल की काम वासना में,
अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देती हैं।
चंद अर्थ, वस्तुओं की मोह - माया में,
तू पावन तन की देह प्रदर्शनी कर देती हैं।
नील कमल सदृश्य जल की भांति स्त्री चरित्र को,
गन्दी मीन की भांति मैला कर देती हैं।
एक तरफ वो दानव पुरुष के चक्षु हैं,
जो चहुँ ओर नित नया शिकार ढूंढ रहे हैं।
दूसरा प्रेम, विश्वास, त्याग, मर्यादा का कवच तोड़,
तेरे अंग-प्रत्यंग निर्लज्जता का लेप लगाकर चमक रहे हैं।
धिक्कार हैं ऐसी स्त्री होने पर,
जिसने स्त्री शब्द की परिभाषा ना जानी।
जो बिक गयी सामान बनकर किसी पुरुष के हाथ,
जिसने माँ बनने की मर्यादा ना जानी।
सुबह शराफत का चोला पहनकर,
रात कुकर्मों से काली कर दी।
जीवन बाधित ना हो जाएं के भय से,
नन्हीं जान कूड़ेदानों व मौत के हवाले कर दी।
तू स्त्री नहीं तू कालिक हैं,
कलंकित वेहशी पुरुष से भी काली हैं।
ऐसे पुरुष तो स्त्री को खिलौना समझ चुके हैं,
और तू खिलौना बनकर बिकने वाली हैं।
तू ना बेटी, बहन, ना पत्नी हैं,
तू पुरुष हाथ की कठपुतली बन ।
जो अपने अंश की माँ ना सकी,
तू पैरों तले कुचली जाने वाली कली बन।
चंद अर्थ, वस्तुओं की मोह - माया में,
तू पावन तन की देह प्रदर्शनी कर देती हैं।
नील कमल सदृश्य जल की भांति स्त्री चरित्र को,
गन्दी मीन की भांति मैला कर देती हैं।
एक तरफ वो दानव पुरुष के चक्षु हैं,
जो चहुँ ओर नित नया शिकार ढूंढ रहे हैं।
दूसरा प्रेम, विश्वास, त्याग, मर्यादा का कवच तोड़,
तेरे अंग-प्रत्यंग निर्लज्जता का लेप लगाकर चमक रहे हैं।
धिक्कार हैं ऐसी स्त्री होने पर,
जिसने स्त्री शब्द की परिभाषा ना जानी।
जो बिक गयी सामान बनकर किसी पुरुष के हाथ,
जिसने माँ बनने की मर्यादा ना जानी।
सुबह शराफत का चोला पहनकर,
रात कुकर्मों से काली कर दी।
जीवन बाधित ना हो जाएं के भय से,
नन्हीं जान कूड़ेदानों व मौत के हवाले कर दी।
तू स्त्री नहीं तू कालिक हैं,
कलंकित वेहशी पुरुष से भी काली हैं।
ऐसे पुरुष तो स्त्री को खिलौना समझ चुके हैं,
और तू खिलौना बनकर बिकने वाली हैं।
तू ना बेटी, बहन, ना पत्नी हैं,
तू पुरुष हाथ की कठपुतली बन ।
जो अपने अंश की माँ ना सकी,
तू पैरों तले कुचली जाने वाली कली बन।
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