सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी हिंदी साहित्य के छायावाद के प्रमुख चार स्तंभों में से एक थे। कबीर दास जी के बाद यदि कोई कवि स्पष्टवादी व निर्भीक कवि रहे, तो वह निराला जी ही थे। निराला जी के काव्य में तुलसी - सूर की प्रतिभा, प्रसाद जी जैसा माधुर्य व सौंदर्य चित्रण तथा सूफी कवियों की सादगी देखने को मिली।वे एक श्रेष्ठ लेखक, कवि, साहित्यकार, निबंधकार, व संपादक थे। परंतु निराला जी को लोकप्रियता कविता से मिली। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी को प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और नई कविता का प्रवर्तक माना जाता है। "डॉ० राजेश्वर प्रसाद चतुर्वेदी जी" ने कहा है कि - निराला युग प्रवर्तक कवि थे। हिंदी में मुक्त छंदों को प्रयुक्त करने का श्रेय उन्हीं को है। उनका भाव जगत विस्तृत हैं। और उन्होंने रहस्यवाद, छायावाद,और प्रगतिवाद को अलंकृत किया है।
जीवन परिचय
"सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी" का जन्म 21 फरवरी सन् 1899 को बंगाल की महिषादल रियासत (जिला मेदिनीपुर) में हुआ था। कहा जाता है कि इनका जन्म मंगलवार को बसंत पंचमी के दिन हुआ था। निराला जी के पिता का नाम पंडित रामसहाय था। और वे महिषादल में सिपाही की नौकरी करते थे। निराला जी के पिताजी मूलत: उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के गुढ़ाकोला नामक गांव के रहने वाले थे। बसंत पंचमी के दिन जन्म होने के कारण 1930 से ही निराला जी का जन्मदिन बसंत पंचमी को मनाए जाने की परंपरा का प्रारंभ हुई। कहा जाता है कि इनकी जन्मकुंडली बनाने वाले पंडित ने इनका नाम सुर्जकुमार रखा था। सूर्यकांत त्रिपाठी जी ने हाईस्कूल तक की ही शिक्षा प्राप्त की। बांग्ला भाषा और हिंदी साहित्य का इन्हें अच्छा ज्ञान था। इसलिए बाद में उन्होंने बांग्ला वह हिंदी संस्कृत का स्वतंत्र अध्ययन किया। पिता की छोटी सी नौकरी में निराला जी ने अनेक आर्थिक संकटों का सामना किया। निराला जी ने मात्र 3 वर्ष की आयु में ही अपनी माताजी को खो दिया था। और 20 वर्ष की आयु में उनके पिता पंडित रामसहाय जी यह संसार छोड़कर चले गए थे। और संयुक्त परिवार की और अपने बच्चों की जिम्मेदारी निराला जी पर ही थी। परंतु दुख का सिलसिला यहां पर समाप्त नहीं हुआ। और 1918 में स्पेनिश फ्लू इन्फ्लूएंजा के प्रकोप में निराला जी ने अपनी पत्नी और बेटी सहित अपने परिवार को खो दिया। और इसी के साथ उन्हें गहरा आर्थिक संकट भी था। और उनका संपूर्ण जीवन घोर आर्थिक संकट में व्यतीत हुआ। इतना सब होने के बाद भी निराला जी ने कभी भी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। जीवन पर्यन्त संघर्षरत रहे। लेकिन कभी भी संघर्ष से भय ग्रस्त होकर उन्होंने अपना साहस नहीं खोया।
सूर्यकांत त्रिपाठी जी पहली नियुक्ति 1918 में महिषादल राज्य में ही हुई थी। 1922 तक यहां कार्य करने के पश्चात् निराला जी ने स्वतंत्र लेखन शुरू कर किया। जैसे - संपादन, अनुवाद, आदि। 1922 से 1923 तक निराला जी ने कोलकाता से प्रकाशित होने वाले "समन्वय" का संपादन कार्य संभाला। अगस्त 1923 से निराला जी "मतवाला" के संपादकीय मंडल में कार्यरत रहे। यहां कार्यरत रहते हुए भी लखनऊ के "गंगा पुस्तक माला कार्यालय" में उनकी नियुक्ति हो गई। जहां निराला जी संस्था की मासिक पत्रिका "सुधा" से 1934 तक जुड़े रहे। 1934 से 1940 तक का समय निराला जी ने लखनऊ में ही व्यतीत किया। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी का आधा समय इलाहाबाद में ही बीता। और वहीं 15 अक्टूबर सन् 1961 में उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया।
रचनाएं
निराला जी ने लेखन कार्य सन् 1920 से प्रारंभ किया था। उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन का प्रारंभ एक गीत लिखकर किया था। जो उनकी जन्मभूमि पर लिखा गया गीत था। इसके बाद साहित्य की अन्य विधाओं पर भी निराला जी ने अविस्मरणीय कार्य किया। जो इस प्रकार से है।
इनकी रचनाएं हैं जैसे- -
काव्य संग्रह -
अनामिका
परिमल
गीतिका
अनामिका द्वितीय
तुलसीदास
कुकुरमुत्ता
अणिमा
बेला
नए पत्ते
अर्चना
आराधना
गीत कुंज
सांध्य काकली
अपरा।
उपन्यास -
अप्सरा
अलका
प्रभावती
निरुपमा
कुल्ली भाट
बिल्लेसुर बकरिहा
चमेली।
कहानी संग्रह -
लिली
सखी
सुकुल की बीवी
चतुरी चमार
देवी।
निबंध आलोचना
रविंद्र कविता कानन
प्रबंध पद्य
प्रबंध प्रतिमा
चाबुक
चयन
संग्रह।
पुराण कथा
महाभारत
रामायण की अंतर्कथाएं
बाल साहित्य-
भक्त ध्रुव
भक्त प्रहलाद
भीष्म
महाराणा प्रताप
सीख भरी कहानियां
अनुवाद -
रामचरितमानस (विनय भाग)
आनंद मठ
विषय वृक्ष
कृष्णकांत का वसीयतनामा कपालकुंडला
दुर्गेश नंदिनी
राम सिंह
राजरानी
देवी चौधरानी
युगलांगुलीय
चंद्रशेखर
रजनी
श्रीरामकृष्णवचनामृत
परिव्राजक
भारत में विवेकानंद
राजयोग इत्यादि।
काव्यगत विशेषताएं
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी के काव्य की प्रमुख विशेषताओं में से एक विशेषता उनका चित्रण कौशल था। निराला जी का चित्रण कौशल इतना जीवंत होता है, कि काव्य को पढ़ते समय पाठकों के मन में संबंधित चित्र उभर कर आ जाता है। फिर वे चित्र बाह्य जगत के हो, आंतरिक भाव के दृश्य रूप, कोई रंग या गंध हो चाहे संगीतात्मक ध्वनियां ही क्यों ना हो या फिर प्राकृतिक सौंदर्य सभी भाव, सभी चित्र निराला जी के काव्य में जीवंत हो जाते हैं। निराला जी के काव्य में उनका भाव बोध ही नहीं वरन् उनका गहन चिंतन भी दिखाई देता है। किसी विशेष स्थिति, परिस्थिति या भाव का वर्णन करते समय उनके काव्य में उनके मन को पहचान कर उसे सामंजस्य स्थापित करना सरल होता है। और यही निराला जी के काव्य की मुख्य तथा उनके यथार्थवाद की विशेषता है। उनके काव्य में उनके अध्यात्मवाद, व रहस्यवाद के दर्शन भी होते हैं। प्रगतिवादी विचारधारा की ओर अग्रसर होकर निराला जी ने शोषित और पीड़ित वर्ग को भी अपना स्वर प्रदान किया।
भाषा शैली
निराला जी की भाषा शुद्ध, परिमार्जित खड़ी बोली है। कई स्थानों पर निराला जी ने विदेशी शब्दों का भी प्रयोग किया है। निराला जी ने अनेक स्थानों पर तत्सम शब्दावली का भी सफल प्रयोग किया है। जिसके कारण उनके भाव समझने में की दृष्टि से जटिल होते चले जाते हैं। भाव स्पष्ट करने हेतु कई स्थानों पर निराला जी शब्दों से भी खेलते हैं। तथा चमत्कार पूर्ण कलात्मक प्रयोग करते हैं। निराला जी के शाब्दिक,भाषिक प्रयोग विषय, भाव को अधिक प्रभावशाली बनाने व सरल अभिव्यक्ति में सहायक होते हैं। उनके यही प्रयोग निराला जी को अपने युग के सभी कवियों में विशिष्ट बनाते हैं। छायावाद रचनाओं में भाषा की क्लिष्टता देखने को मिलती है। और ठीक इसके विपरीत प्रगतिवादी रचनाओं में भाषा सरल, स्पष्ट, सरस, व्यवहारिक होती है। निराला जी के काव्य पढ़कर ज्ञात होता है, कि निराला जी का भाषा पर पूर्ण अधिकार था। निराला जी ने अधिकांश रचनाओं में सुबोध शैली का प्रयोग किया है।
अंत में यही कहना सर्वथा उचित होगा कि अपने श्रेष्ठ व्यक्तित्व, विलक्षण प्रतिभा व निराले व्यक्तित्व के कारण ही निराला जी हिंदी साहित्य जगत के सम्राट कहे जाते हैं।
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