मीराबाई जी का जीवन परिचय





तत्कालीन "श्रीकृष्ण" भक्तों में "मीराबाई" भगवान श्रीकृष्ण की अनन्य भक्त मानी जाती है। 
  जीवन परिचय 
           श्रीकृष्ण की अनन्य भक्त और कवयित्री मीराबाई जी का जन्म सन् 1498 ई० में पाली के कुड़की गांव में दूदा जी के चौथे पुत्र रतन सिंह के घर में हुआ था। मीराबाई के पिता रतन सिंह राठौड़ राजपूत रियासत के शासक थे। वे अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी। अल्पायु में ही मीराबाई की माता जी का देहांत हो गया था। मीराबाई की माता जी की मृत्यु के बाद उनकी परवरिश उनके दादा जी "राव दूदा जी" ने की।
          राव दूदा जी धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे।  भगवान विष्णु के साधक थे। मीराबाई पर अपने दादा राव दूदा जी के भक्ति पूर्ण व्यवहार व्यक्तित्व की अमिट छाप थी। जिस कारण वे बचपन से ही भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन हो गई। और श्रीकृष्ण की भक्ति में डूबी मीरा ने श्री कृष्ण को अपने हृदय में स्थापित कर लिया। दूदा जी के धार्मिक प्रवृत्ति के होने के कारण उनके यहां साधु संतों का आना जाना लगा रहता था। इसलिए मीराबाई जी बचपन से ही साधु-संतों के संपर्क में रहीं। मीरा का विवाह मेवाड़ के सिसोदिया राज परिवार में तय हुआ था। और सन् 1516 में मेवाड़ के राजा राणा सांगा के पुत्र भोजराज के साथ मीराबाई का विवाह संपन्न हुआ, और मात्र 2 वर्ष के पश्चात् ही 1518 में युद्ध के दौरान मीरा के पति भोजराज गंभीर रूप से घायल हो गए। और 1521 में भोजराज की मृत्यु हो गई। उस समय में सती प्रथा का प्रचलन था। सती प्रथा का पालन किया जाता था। इसलिए पति की मृत्यु के बाद मीराबाई को भी पति के साथ सती  करने का प्रयास किया गया। किंतु मीराबाई इसके लिए तैयार नहीं हुई। उन्होंने सती प्रथा को मानने से इनकार किया। तथा मीरा के पति का अंतिम संस्कार चित्तौड़ में मीरा की अनुपस्थिति में ही हुआ। इसके बाद मीराबाई ने पति की मृत्यु पर अपना श्रृंगार उतारने के लिए भी मना कर दिया। क्योंकि वह गिरधर को अपना पति मानती थी। पति की मृत्यु के कुछ वर्ष पश्चात् ही मीरा के पिता व ससुर  एक युद्ध में परलोक सिधार गए। एक साथ प्रियजनों का साथ छूट जाने के कारण भी मीराबाई धीरे-धीरे संसार से विरक्त होने लगी। और श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन साधु संतों की सत्संगति में भजन-कीर्तन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगी। कहा जाता है, कि वे श्रीकृष्ण की भक्ति में इतनी लीन हो गई थी, कि अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन भी नहीं करती थी। ऐसा भी कहा जाता है, कि एक बार उनके ससुराल में कुल देवी "दुर्गा माता" की पूजा थी।तो मीरा बाई जी ने वहां जाने से भी साफ इंकार कर दिया। उन्होंने कहा कि उनका मन गिरधर गोपाल के अतिरिक्त किसी अन्य भगवान की पूजा करने को करने की आज्ञा नहीं देता है। वह सारा दिन श्रीकृष्ण की भक्ति में खोई रहती थी। कृष्ण के पद, भजन गाती, कीर्तन करती तथा साधु-संतों के कृष्ण भजनों में नाचती गाती रहती। मीराबाई का यूं श्री कृष्ण भक्ति में लीन रहना तथा साधु-संतों के साथ नाचना गाना उनके ससुराल वालों को पसंद नहीं था। क्योंकि वह एक राजसी  परिवार से थे। वह मीरा को इस तरह से श्रीकृष्ण भक्ति करने से रोकते थे। कृष्ण भक्ति का विरोध करते। कई बार समझाते कि वह मेवाड़ की महारानी है, उन्हें महारानी की तरह राज्य से परंपरा को निभाना चाहिए उन्हें अपने राजवंशी कुल की मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए।  परंतु मीराबाई कभी नहीं रुकी और श्री कृष्ण भक्ति के पथ पर आगे ही बढ़ती रहीं। ऐसा कहा जाता है कि उनके ससुराल वालों को मीरा के श्री कृष्ण भक्ति में लीन व्यवहार से ईर्ष्या होने लगी थी। और उन्होंने मीरा को विष देकर मारने का निर्णय लिया, तथा मीराबाई के पास विष का प्याला भेजा। लेकिन मीराबाई ने प्रतिदिन की ही भांति विष के प्याले से पहला भोग श्रीकृष्ण को लगाया और फिर स्वयं विष पी लिया। पर मीराबाई की अटूट श्रीकृष्ण भक्ति और निश्छल प्रेम के फलस्वरुप वह विष अमृत में बदल गया। और मीरा को कुछ नहीं हुआ। इस तरह भगवान श्रीकृष्ण ने उनकी रक्षा की। परंतु मीरा को मारने की साजिशों का सिलसिला यहीं नहीं रुका।  और फिर एक बार उन्हें मारने के लिए उनके ससुराल वालों ने फूलों की टोकरी में एक सांप रखकर भेज दिया। यहां भी श्रीकृष्ण के आशीर्वाद से वह सांप एक सुंदर फूलों की माला में परिवर्तित हो गया। मीराबाई को मारने के समस्त प्रयासों को असफल होता देख राणा विक्रम सिंह ने एक बार फिर से मीराबाई को मारने के लिए कांटों का बिस्तर भेजा। लेकिन ऐसा कहा जाता है कि वह कांटों भरी सेज भी फूलों में बदल गई। और इस तरह से भगवान श्रीकृष्ण ने वहां भी मीराबाई के प्राणों की रक्षा की। माना  जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण अपनी सच्ची साधिका मीराबाई को स्वयं आकर बचाते थे। और कई बार मीराबाई जी को भगवान श्रीकृष्ण के साक्षात् दर्शन भी हुए थे। श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक व भक्तों के रूप में कवयित्री मीराबाई की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई थी। श्रीकृष्ण की भक्ति और प्रेम में डूबी मीराबाई द्वारा रचित भजन, गीत घर-घर गाए जाने लगे। तथा साथ ही मीराबाई जी के अद्भुत प्रेम व श्रीकृष्ण के प्रति उनकी आस्था से होने वाले चमत्कारों की चर्चा दूर तक होने लगी। 
         इसके बाद सन् 1539 में मीराबाई जी वृंदावन चली गई और कुछ वर्ष वृंदावन में निवास करने के पश्चात् वे 1556 के आसपास द्वारका चली गई। तत्कालीन समाज मीराबाई जी को विद्रोही भी कहता था। क्योंकि वह समाज में स्थापित परंपरागत नियमों का अनुसरण नहीं करती थी। और अपना अधिकांश समय कृष्ण मंदिरों में साधु-संतों के साथ भजन-कीर्तन व तीर्थ यात्रा में ही व्यतीत करती थी। और द्वारका में ही सन् 1560 को द्वारकाधीश मंदिर में श्रीकृष्ण के प्रेम और भक्ति में खोई मीराबाई जी भजन कीर्तन कर रही थी कि तभी भगवान श्री कृष्ण की मूर्ति में समा गई। और इस तरह से मूर्ति में समाकर संत कवयित्री मीराबाई जी ने संसार का त्याग किया। 
 रचनाएं 
       संत कवयित्री व भगवान श्रीकृष्ण की अनन्य भक्त मीराबाई जी ने श्रीकृष्ण के प्रेम में डूबकर भक्तिपूर्ण व भावपूर्ण अनेकानेक पदों की रचना की। उनके  सभी पदों के संकलन इस प्रकार से हैं- नरसी जी का मायरा 
राग सोरठा 
मीरा की मल्हार 
मीरा पदावली 
राग गोविंद 
गीत गोविंद 
गोविंद टीका 

 काव्यगत विशेषताएं 
           सर्वविदित है कि कवयित्री मीराबाई जी भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे। उनके काव्य में मूल रुप से श्रीकृष्ण के रूप सौंदर्य, श्रीकृष्ण के प्रति उनकी भक्ति, उनका प्रेम ही दिखाई देता है। मीराबाई के काव्य का मुख्य विषय श्री कृष्ण ही रहे। मीराबाई जी ने भगवान श्रीकृष्ण का वर्णन करते हुए भावों पर अधिक बल दिया। श्रीकृष्ण ही उनके  काव्य के केंद्र बिंदु रहे। श्रीकृष्ण के  उनके काव्य की समृद्धि श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम व भक्ति से परिपूर्ण थी। मीराबाई जी ने अपने काव्य में श्रीकृष्ण के रूप सौंदर्य का हृदयस्पर्शी चित्रण किया है। उनके काव्य में व्यक्त भक्ति भावना कभी उन्हें श्रीकृष्ण की भक्त, कभी श्रीकृष्ण की प्रेमिका, तो कभी दासी कहती है। इन सभी रूपों में स्वयं को अभिव्यक्त करते हुए उन्होंने भावनात्मक शैली को अपनाया। मीरा ने स्वयं को सदैव श्री कृष्ण के साथ भाव जगत में पाया। उन्होंने प्रेम के संयोग - वियोग दोनों ही स्थितियों का वर्णन अति भावनात्मक तरीके से किया है। विरह वेदना का जितना मार्मिक वर्णन मीरा के काव्य में देखने को मिलता है, उतना अन्यत्र दुर्लभ है। मीरा के काव्य की विरह जैसी तल्लीनता, तन्मयता, भावुकता, आसक्ति और पीड़ा जो पाठकों के समक्ष भावनाओं का एक चित्र प्रस्तुत कर देती है। इस प्रकार रचयिता द्वारा वर्णित भावनाओं के साथ पाठकों का तालमेल आज तक किसी काव्य में नहीं हुआ है। क्योंकि श्रीकृष्ण भक्ति के काव्य जहां कवियों की कल्पनाओं पर आधारित होते हैं। वहीं मीराबाई जी के श्रीकृष्ण की भक्ति व प्रेम से पूर्ण काव्य उनकी व्यक्तिगत अनुभूति है। इसलिए मीराबाई जी के काव्य पाठकों के हृदय की गहराइयों को छूता है। मीरा के पद उनकी व्यक्तिगत अनुभूतियों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। मीरा के पदों में उनकी व्यक्तिगत अनुभूतियों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति हिंदी साहित्य में उनके काव्य को अद्वितीय बनाता है। 

भाषागत विशेषताएं
             मूल रूप से मीरा बाई जी ब्रजभाषा की कवयित्री है।  लेकिन उनके द्वारा रचित पदों में ब्रज व राजस्थानी भाषा का मिश्रण होता है। मीराबाई जी के काव्य में  ब्रजभाषा और राजस्थानी के साथ-साथ गुजराती, भोजपुरी आदि शब्दों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में देखने को मिलता है। मीरा की भाषा भावों को साथ लेकर चलती है। मीरा की भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक, सरस तथा सुमधुर हैं। मीराबाई जी के काव्य में हमें श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का अत्यंत मर्मस्पर्शी वर्णन मिलता है। श्रृंगार रस के साथ शांत रस का समन्वय भी मीरा की भाषा विशेषता है। मीराबाई जी के पद गीतात्मक शैली में रचित है। मीराबाई जी का संपूर्ण काव्य गेय पदों का उत्कृष्ट उदाहरण है। मीरा के काव्य में उपमा, रूपक व दृष्टांत अलंकारों का प्रयोग दृष्टव्य होता है। रूपक, उपमा व दृष्टांत आदि का प्रयोग मीरा के काव्य में भावों की अभिव्यक्ति के लिए भाषा के साथ स्वत: ही होता चला जाता है। भावों के अनुरूप भाषा स्वत: ही परिवर्तित होती जाती है।

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