कुछ अनकहे, अनसुने शब्द (भाग - 4 )

         ( भाग - 4 )
दूसरे दिन सुबह उठकर चाय - नाश्ता कर प्रभात जल्दी से तैयार होकर गोपी को आवाज देता हैं।

प्रभात - गोपी जी,जल्दी से टिफिन दीजिए,

गोपी - ये लीजिए सर जी,

प्रभात - मैं शास्त्री जी के घर टिफिन लौटाता हुआ, वहीं से अपने काम पर चला जाऊॅंगा, ठीक है।

प्रभात शास्त्री जी के घर पहुंचता हैं। वहाॅं पहुॅंचते ही उसकी पहली मुलाकात उनकी बेटी से ही होती है। वह रोज की तरह आज भी तुलसी पूजा कर रही होती है।प्रभात उसे देख कर वहीं चला जाता है।
वह पूजा समाप्त कर प्रभात को देख अंदर जाने लगती हैं।

प्रभात - सुनो, गुड मार्निंग, 

लड़की - हल्का - सा सिर झुकाते  हुए, इशारे में उत्तर देती हैं।

प्रभात - वो मैं ये टिफिन लौटाने आया था। आपको देखा तो सोचा,आपको ही दे दूॅं। वैसे मुझे कुछ कहना भी था।वो ये,  सॉरी, 

लड़की - आश्चर्य से उसकी ओर देखती हैं।

प्रभात - वो क्या हैं, मैं अक्सर ऐसे शोध कार्य के लिए इधर - उधर, अलग - अलग स्थानों पर जाता रहता हूॅं। मुझे लोगों से बातें करना अच्छा लगता है। पर शायद आप मुझे गलत समझ रही हैं।इसीलिए आप जवाब नहीं देती। पर मेरा कोई गलत इरादा नहीं है। आपसे बातें करने का। सबकी अपनी - अपनी आदत होती है। कल शाम सड़क पर मैंने आपको कुछ ज्यादा ही बातें सुना दी। इसीलिए आपको सॉरी कहना चाहता था।
( कुछ देर रुक कर )
 ये टिफिन लीजिए, क्या मैं शास्त्री जी से मिल सकता हूॅं।

लड़की - हाॅं कहने के लिए सिर हिलाती हैं। और हाथ से अंदर चलने का संकेत करती हैं।

प्रभात - जी, आपने अभी - भी मेरी बातों का कोई जवाब नहीं दिया,क्या आप अब भी मुझसे नाराज़ हैं। या शायद आप अनजान लोगों से बात करना पसंद नहीं करती।

लड़की - उसकी तरफ देखती हैं और फिर अन्दर चलने का संकेत करती हैं।

लड़की उसे अपने पिता शास्त्री जी के पास ले जाती हैं।

प्रभात - नमस्कार शास्त्री जी, 

शास्त्री जी - प्रभात, आओ - आओ। अरे बेटी इनसे मिली तुम, ये हैं प्रभात। यहाॅं वनस्पतियों पर शोध करने आए हैं। और प्रभात ये हैं मेरी प्यारी बेटी " प्रियंवदा" । बेटी चाय - नाश्ते की व्यवस्था करो प्रभात के लिए।

प्रियंवदा - मुस्कुराते हुए, सांकेतिक भाषा में हाॅं कहते हुए वहाॅं से चली जाती हैं।

प्रभात - जी नहीं शास्त्री जी, मैं चाय - नाश्ता करके आया हूॅं। वो तो मैं टिफिन लेकर आया था। तो सोचा आपसे भी मिलता चलूॅं। और प्रियंवदा जी से तो मैं बाहर मिल ही गया था। अभी आज्ञा दीजिए। फिर कभी आता हूॅं।

शास्त्री जी - ठीक है। हम आपके कार्य में बाधा नहीं बनेंगे। 

प्रभात चला जाता हैं। पर अब भी उसके मन में कहीं ना कहीं  प्रियंवदा के लिए नाराजगी थी। वह सोचता है। इस लड़की को परेशानी क्या हैं। धन्यवाद कहो तो जवाब नहीं देती, सॉरी कहो तो जवाब नहीं देती। शास्त्री जी स्वयं उसके पिता सामने से परिचय करा रहे है तो भी कुछ नहीं कहती। इतना क्या अहंकार। और ऐसी लड़की जो किसी को मान नहीं देती, सीधा, सरल जवाब नहीं देती, उसका नाम भी क्या रखा प्रियंवदा, मतलब प्रिय बोलने वाली। अरे जो किसी को; किसी बात का जवाब ही नहीं देती, क्या मीठा बोलती होगी। पक्का जब भी बोलती होगी, कड़वा ही बोलती होगी।इसीलिए शास्त्री जी ने ही इसे चुप रहने को कहा होगा। जो बिना बोले इतना गुस्सा दिलाती हैं, बोलेगी तो पता नहीं क्या होगा। मैंने सोच लिया अब अगर कहीं मिली या दिखी तो बात ही नहीं करूॅंगा, बात क्या उसकी तरफ देखूॅंगा भी नहीं। यहीं सही होगा।

ऐसे है दिन बीतते रहे। प्रभात अपने शोध कार्य में व्यस्त रहा। उसका शास्त्री जी और मुखिया जी के परिवार में आना - जाना होता रहता था। इन दोनों परिवारों ने उसे परिवार सा स्नेह दिया। पर जब कभी प्रियंवदा से उसकी मुलाकात भी होती तो वह अनदेखा कर देता। और कभी दोनों एक दूसरे को सामने आता देख अपना रास्ता बदल देते। कई बार तो प्रियंवदा के जवाब ना देने पर प्रभात उसे नकचड़ी होने का ताना भी देता हैं। पर इस बीच प्रभात को कभी भी प्रियंवदा के बारे में ज्यादा कुछ जानने का मौका ही नहीं मिला। सिलसिला यूं ही चलता रहा।
                  तभी एक दिन प्रियंवदा अपनी मां के साथ बाजार से सामान लेकर आ रही होती है।
वहीं से प्रभात भी गुजर रहा होता है। शास्त्री जी का परिवार देख वह शास्त्री जी की पत्नी से मिलने आ जाता हैं, और नमस्ते कहते हुए कुशल पूछता है। फिर वे दोनों जैसे ही आगे बढ़ते हैं, कि अचानक से सामने से एक बच्चा साईकिल चलाना सीख रहा होता है। वह तेजी से आकर प्रियंवदा से टकरा जाता है। और वह जमीन पर गिर जाती हैं। यह देख प्रभात दौड़ता हुआ आता है। और प्रियंवदा को संभालते हुए उठाता है। उस बच्चे को भी उठाता हैं। बच्चा रोने लगता है। तीनों बच्चे को चुप कराते हैं। जब बच्चा चला जाता है। तो प्रभात देखता है। कि प्रियंवदा के हाथ में रगड़ लगने से चोट आ गई हैं। और उसका सारा सामान नीचे गिरा हुआ है। प्रियंवदा और उसकी माॅं  दोनों समान उठाने लगते हैं, तो प्रभात कहता है।

प्रभात - आप रहने दो आपको चोट लगी है। आंटी आप इन्हें संभालों मैं ये सामान उठाकर आपके घर पहुॅंचाता हूॅं।

और फिर प्रभात सारा सामान उठाने लगता हैं।

प्रियंवदा की माॅं - अरे बेटा रहने दो हम कर लेंगे।

प्रभात - अरे कोई नहीं। और मैं भी तो आपके बेटे जैसा ही हूॅं। आपकी मदद करके मुझे अच्छा लगेगा। 

प्रियंवदा - प्रियंवदा खामोशी ये सब देख रही थी। 

प्रभात - (प्रियंवदा की ओर देखते हुए) आपको ज्यादा चोट तो नहीं आयी । 

प्रियंवदा - ना में सिर हिलाती हैं।

   प्रभात - ( प्रियंवदा से )एक बार देख लीजिए कहीं कोई सामान छूट तो नहीं गया।

प्रियंवदा - एक बार फिर से ना में सिर हिला देती हैं।

 प्रभात सारा समान उठाकर उनके साथ जाता हैं।
प्रभात - ( चलते - चलते वह प्रियंवदा की ओर देखते हुए मन ही मन कहता हैं।) ये कैसा व्यवहार हैं। आखिर मुझसे ऐसी भी क्या नाराजगी, मैंने किया ही क्या है ? जो मेरी किसी भी बात का कोई जवाब नहीं देती हैं। तबीयत पूछ रहा हूॅं तो भी सिर हिलाकर जवाब देती हैं। भगवान क्या सच में खूबसूरत लड़कियों को अक्ल नहीं देता है या नखरे कुछ ज्यादा देता हैं।

  वहीं दूसरी ओर  प्रियंवदा भी प्रभात को देखते हुए मन ही मन कहती हैं।

प्रियंवदा - क्या इसे मेरे बारे में कुछ नहीं पता या जान बूझकर मुझे तंग करता है। अगर तुम नहीं जानते हो, तो मुझे पता है। तुम मेरे बारे में क्या सोचते होंगे, यही कि कैसी लड़की हैं कभी कुछ जवाब ही नहीं देती।

प्रभात - ( मन ही मन ) अभी तो मेरी तरफ ऐसे देख रही हैं, मानों कुछ कहना चाहती हो। पर कहेगी कुछ नहीं। 

एक बार फिर प्रभात के मन में कुछ पंक्तियां अंकित होती है।

"क्यों होठों से कुछ कहती नहीं,
तेरी खामोशी मुझे बैचेन कर जाती हैं।
पर ना जाने क्यों अक्सर तेरी निगाहें,
मेरी निगाहों से बहुत कुछ कह जाती हैं।"

फिर दोनों नजरें फेर लेते हैं। और थोड़ी देर बाद घर पहुॅंच जाते हैं। घर पहुॅंचते ही प्रभात सामान रखकर तुरंत वहाॅं से चला जाना चाहता है। क्योंकि कहीं ना कहीं उसके दिल में एक हलचल थी। कि मैं इससे इतना नाराज़ हूॅं, लेकिन फिर भी ये कैसी अदृश्य डोर है। जो मुझे इसकी ओर खींच ले जाती हैं। ये कैसा एहसास है जो मेरे गुस्से को भुलाकर, मुझे इसका शायर बना देता हैं। लेकिन................

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