मंगलेश डबराल समकालीन हिंदी कवियों में प्रमुख कवि हैं।
जीवन परिचय
मंगलेश डबराल जी का जन्म 16 मई 1948 को टिहरी गढ़वाल उत्तराखंड के काफलपानी अपने गांव में हुआ था। इनकी शिक्षा-दीक्षा देहरादून में हुई थी। बाद में दिल्ली आकर हिंदी पैट्रियट, प्रतिपक्ष और आसपास में काम किया। और बाद में वह भोपाल में मध्य प्रदेश कला परिषद भारत भवन से प्रकाशित साहित्यिक त्रैमासिक पूर्वाग्रह में सहायक संपादक के पद पर कार्यरत रहे। फिर इलाहाबाद और लखनऊ से प्रकाशित अमृत प्रभात में भी डबराल जी ने कुछ दिनों कार्य किया। सन् 1983 में जनसत्ता में साहित्यिक संपादक का पद संभाला। तत्पश्चात् कुछ समय सहारा समय में संपादन कार्य करने के पश्चात् डबराल जी नेशनल बुक ट्रस्ट से जुड़े रहे।
और अंत में अपने इस सफर पर अविराम चलते हुए कोरोना वायरस से संक्रमित होने के कारण 9 दिसंबर 2020 को वसुंधरा गाजियाबाद के एक अस्पताल में उनका निधन हो गया।
रचनाएं
मंगलेश डबराल जी की प्रमुख कृतियां हैं।
मंगलेश डबराल जी के मुख्यत: 5 काव्य संग्रह प्रकाशित हैं
1- पहाड़ पर लालटेन।
2- घर का रास्ता।
3- हम जो देखते हैं।
4- आवाज भी एक जगह है।
5- नए युग में शत्रु।
इन पांच काव्य संग्रह के अतिरिक्त इनके दो गद्य संग्रह इस प्रकार से है।
1- लेखक की रोटी।
2- कवि का अकेलापन।
साथ ही मंगलेश डबराल जी का एक यात्रावृत्त भी है।
यात्रावृत्त
एक बार आयोवा।
जो कि प्रकाशित हो चुका है।
पुरस्कार व सम्मान
मंगलेश डबराल जी को दिल्ली हिंदी अकादमी के साहित्यकार सम्मान से, कुमार विकल स्मृति पुरस्कार से तथा अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना "हम जो देखते हैं" के लिए साहित्य अकादमी द्वारा सन् 2000 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
काव्यगत विशेषताएं
कविता के अतिरिक्त मंगलेश जी अंग्रेजी साहित्य, सिनेमा, संचार माध्यम और सांस्कृतिक विषयों पर भी नियमित लेखन कार्य करते थे। मंगलेश जी की कविताओं में सामंती बोध व पूंजीवादी, छल छद्म दोनों का प्रतिकार है। उनका यह प्रतिकार किसी प्रकार का शोर नहीं है बल्कि प्रतिपक्ष में एक सुंदर सपने की रचना करते हैं। उनका सौंदर्यबोध सूक्ष्म है। और एक और जहां उनकी कविता में गहरी स्थानिकता है, वहीं दूसरी ओर बहुत उदास विश्व व्यापकता भी है। जहां मंगलेश जी छोटी से छोटी, ठोस व पीछे कहीं छुट्टी हुई चीजें और घटनाओं की मार्मिकता को समझ लेते हैं, वहीं वे अमूर्त, अदृश्य, अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाओं से भी आसानी से सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं। मंगलेश जी ने कहानियां और समीक्षाएं भी लिखी हैं। मंगलेश जी युगीन ने आंचलिकता का बोध कराने वाली प्रवृत्तिमूलक कविताएं लिखी है। इनका काव्य कभी भी उद्देश्यहीन अनन्त में नहीं भटकता। अपितु लक्ष्य को दृष्टिपथ में रखते हुए आने वाले कल के साथ संबंध जोड़ कर चलता है।
भाषा शैली
भाषा की दृष्टि से मंगलेश जी ने नई कविता का अनुकरण किया है। जो कि उन्होंने अपने भावबोधन हेतु किया। इनकी भाषा सदैव पारदर्शी रही, भावानुकूल रही। मंगलेश जी में बहुत कम शब्दों में गंभीर बात कह व्यक्त करने की कुशलता थी। उन्होंने अपनी रचनाओं में अंग्रेजी, उर्दू, अरबी, फारसी, तत्सम, तद्भव व मुहावरे और लोकोक्तियां का प्रयोग अपनी योग्यतानुसार कुशलतापूर्वक किया है। इनकी भाषा सदैव सरल, सहज रही तथा विषयानुरूप अपना रूप परिवर्तित करती रही। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि मंगलेश जी बहुत अच्छा अनुवादक भी थे। तो मंगलेश जी ने भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी, डच, रूसी, जर्मनी,स्पेनिश, पुर्तगाली, फ्रांसीसी, बुल्गारियाई, भाषाओं में भी अनुवाद किया है। भाषा पर इनका अच्छा अधिकार था।

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