( भाग - 9 )
प्रभात कमरे में शास्त्री जी के पास जाता है।
प्रभात - नमस्कार शास्त्री जी, कैसे हैं आप ?
शास्त्री जी - नमस्कार बेटा, आओ प्रभात, आओ बैठो, तुम सुनाओ तुम कैसे हो।
प्रभात - जी सब ठीक है। शहर से कब आए।
शास्त्री जी - बस कल ही आया हूॅं। तुम्हें कुछ बताना चाहता हूॅं। बैठो आराम से बातें करते हैं।
प्रभात - शास्त्री जी इससे पहले कि आप मुझसे कुछ कहें। आज मैं आपसे बहुत जरूरी बात करने आया हूॅं। बड़ी हिम्मत जुटा कर आया हूॅं, आपसे बात करने के लिए। अभी नहीं कहा तो फिर ना कह पाऊॅंगा। कृपया पहले मेरी बात सुन लीजिए। मैं आज आपसे अपनी जिंदगी के सबसे अहम फैसले, अपनी जिंदगी की खुशी के बारे में कुछ कहना चाहता हूॅं। वैसे तो जो बात मैं कहने आया हूॅं, मेरे परिवार से किसी बड़े को आना चाहिए था। पर अभी यहाॅं मैं अकेला हूॅं। और आप मेरे परिवार जैसे ही हैं। इसीलिए सोचा मन में जो भी हैं। वो सब आज आपसे कह दूॅं। और आप तो जानते ही हैं। अब कुछ ही समय में, मैं अपने घर लौट जाऊॅंगा। अगर अभी ना कहा तो फिर कहीं देर ना जाएं।
शास्त्री जी - प्रभात सब ठीक तो है बेटा। क्या हुआ हैं ? ऐसी क्या बात हैं ? जिसे कहने के लिए तुम इतनी भूमिका बना रहे हो। आराम से कहो।
प्रभात - जी शास्त्री जी। क्या करूॅं बात ही कुछ ऐसी है। समझ नहीं आ रहा है। कैसे कहूॅं, कहाॅं से शुरू करूॅं। आशा करता हूॅं। आशा करता हूॅं, आप मेरी बात को समझेंगे।
शास्त्री जी - अरे इसमें इतना सोचने की क्या बात हैं। हमें अपना परिवार कहते हो ना, तो परिवार वालों से कुछ कहने में कैसी हिचकिचाहट। जो भी मन में हैं खुल कर कह दो।
प्रभात - जी। वो बात ऐसी है। शास्त्री जी कि यहाॅं आने के बाद से आप और मुखिया जी का परिवार ही मेरे सबसे करीब रहा हैं। मैं अपना परिवार मान कर यहाॅं आता - जाता रहा हूॅं। ( नजरें झुकाते हुए ) आपके परिवार से हिला - मिला। प्रियंवदा से मिला, उससे दोस्ती हुई, लेकिन ना जाने कब मैं प्रियंवदा को मन ही मन पसंद करने लगा। मुझे पता ही नहीं चला। आज जब मेरे लौटने का समय नजदीक आ रहा है। तो मुझे एहसास हुआ कि मैं प्रियंवदा चाहने लगा हूॅं। मैं प्रियंवदा से प्यार करता हूॅं। और शादी करना चाहता हूॅं। आज मैं यहाॅं आपकी आज्ञा का अभिलाषी हूॅं।
शास्त्री जी - ये क्या कह रहे हो प्रभात। ( आश्चर्य से )
प्रभात - जी शास्त्री जी। और मैंने अपने दिल की बात प्रियंवदा से भी कह दी हैं। मैंने उसके मन में भी अपने लिए वो भाव देखें हैं। पर वो अपनी एक कमी के लिए मुझसे बात ही नहीं करना चाहती हैं। जबकि मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता है। मुझे लगता है कि प्रियंवदा से बेहतर मुझे कोई नहीं समझ सकता। मेरी जीवनसाथी के रूप में प्रियंवदा ही सबसे अच्छी है। इसलिए मैं आज आपसे प्रियंवदा के रूप में अपने जीवन की सबसे बड़ी खुशी माॅंगने आया हूॅं। या यूॅं कहूॅं, कि आपसे अपनी जिंदगी माॅंग रहा हूॅं। क्या आप प्रियंवदा के जीवनसाथी के रूप में मुझे स्वीकार करेंगे। मैं आपसे वादा करता हूॅं, कि मैं प्रियंवदा को हमेशा खुश रखूॅंगा। उसे जिंदगी की हर खुशी दूॅंगा। कभी कोई शिकायत का मौका नहीं दूॅंगा।
शास्त्री जी - प्रभात ये तुमने क्या कह दिया।
( शास्त्री जी की आंखे नम हो जाती हैं ) तुमने तो मुझे दुविधा में डाल दिया। एक तरफ मेरी बेटी हैं प्रियंवदा, जिसे तुम जैसा लड़का मिले तो वो उसका सौभाग्य होगा, और दूसरी तरफ तुम हो प्रभात, जो मेरे लिए मेरे बेटे से कम नहीं हो, भला मैं कैसे तुम्हें प्रियंवदा से शादी करने की सहमति दूॅं। जबकि मैं प्रत्येक स्थिति से परिचित हूॅं। प्रभात मेरे लिए जितनी प्रियंवदा की खुशी महत्वपूर्ण हैं। उतनी ही तुम्हारी खुशी भी मेरे लिए बहुत मायने रखती हैं। मैंने तुम्हें मात्र कहने को नहीं, बल्कि मन से बेटा कहा हैं। मुझे माफ़ करना बेटा ये मुझसे नहीं हो पाएगा।
प्रभात - क्यों नहीं शास्त्री जी। क्या मैं प्रियंवदा के लिए सही नहीं हूॅं। इसका मतलब तो यहीं होगा कि आप मुझे अपनी बेटी के लिए पसंद नहीं करते हैं।
शास्त्री जी - नहीं नहीं बेटा ऐसा मत कहो।
तुम हर प्रकार से प्रियंवदा के लिए श्रेष्ठ वर हो। लेकिन शायद उसी के नसीब में कोई कमी रह गई है, जो उसे तुम जैसा साथी नहीं मिल सकता।
प्रभात - जब मैं सामने से प्रियंवदा के लिए अपनी भावना प्रकट कर रहा हूॅं। उससे शादी करने के लिए आपसे उसका हाथ माॅंग रहा हूॅं। फिर कहाॅं क्या परेशानी हैं ? मैं अब तक समझ नहीं पा रहा हूॅं।
शास्त्री जी - तुम समझते क्यों नहीं प्रभात। तुम तो जानते हो, प्रियंवदा बोल नहीं सकती हैं। हालांकि मैं अभी दो दिन पहले जब डॉक्टर से मिला तो उन्होंने उम्मीद की एक किरण दिखाई हैं कि शायद प्रियंवदा ऑपरेशन के बाद बोल सके। लेकिन मात्र उम्मीद के आधार पर मैं तुम्हें प्रियंवदा का हाथ दे दूॅं, नहीं प्रभात। कहीं ऐसा ना हो कि तुम्हारे साथ कोई अन्याय हो जाएं। जीवनसाथी तो जीवन की पथरीली राह का, दुख के अंधेरों का, सुख की सेज का एक ऐसा साथी होता है, जिसके दो प्यार भरे बोल हमें अनंत तक सफर तय करने का हौसला देते हैं। और कहीं ऐसा ना हो कि एक दूजे को समझने - समझाने में ही तुम दोनों की सारी उम्र गुजर जाएं।
प्रभात - नहीं शास्त्री जी, आपने एक सच्चे हमसफ़र की गलत परिभाषा दी है। एक सच्चा जीवनसाथी वो होता है। जिसके साथ सफर तय करते समय जीवन की पथरीली राह की चुभन महसूस ना हो, जो तुम्हारे जीवन में छाएं दुख के अंधेरे को अपनी एक मुस्कुराहट की रोशनी से दूर कर दे। जो सुख की सेज की संगिनी, उलझे पथ की पथ प्रदर्शक, जो हमसाया बनकर साथ चलें, जो बिन कहें मन पढ़े, जो तुलसी बन आंगन महकाए, जिसे गीता की तरह मन - मन्दिर में स्थापित किया जाएं, जिसके साथ चलें गए दो कदम भी जीवन के अनंत सफर पर चलने के समान हो। जहाॅं जीवनसंगिनी ऐसी मिले तो फिर किसी भी कमी की जगह ही कहाॅं रह जाती हैं।
शास्त्री जी - वाह बेटा, कितने सुंदर विचार हैं। पर फिर भी मैं हाॅं नहीं कह सकता हूॅं। फिर तुम्हारे परिवार की सहमति भी तो जरूरी है।
प्रभात - मैंने घर बात कर ली है। वो सभी बहुत खुश हैं। क्योंकि मैं खुश हूॅं। वो सभी यहाॅं आने को तैयार हैं। बस आपकी हाॅं चाहिए।
शास्त्री जी - प्रभात क्या तुमने गहन विचार किया है।
प्रभात - शास्त्री जी मैंने प्रियंवदा से प्रेम किया हैं। प्रियंवदा के व्यक्तित्व से प्रेम किया हैं। और जहाॅं प्रेम बाहरी आवरण से नहीं, आंतरिक छवि से होता है ना शास्त्री जी, वहाॅं किसी गहन विचार की जरूरत नहीं होती। और आंतरिक छवि से प्यार आंखों से नहीं आत्मा से होता है।। और मेरा प्यार प्रियंवदा के लिए रूह से रूह तक का हैं। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि ऑपरेशन के बाद क्या होगा, क्या नहीं। मेरे लिए मेरा प्यार, मेरी जिंदगी सब कुछ प्रियंवदा हैं। उसकी आवाज नहीं।
शास्त्री जी - प्रभात तुमने तो प्यार की एक नई परिभाषा लिख दी है। लेकिन एक बार मैं प्रियंवदा से और तुम्हारे माता - पिता से बात करना चाहूॅंगा।
प्रभात - मैं खुद शहर जाकर माॅं को साथ लेकर आऊॅंगा। और रही बात प्रियंवदा की तो वह भी बिल्कुल आपकी ही तरह सोच रही हैं। जबकि मैंने महसूस किया है, कि वो भी मेरे प्यार को महसूस तो करती हैं, पर कहना नहीं चाहती। वो अपने से कहीं ज्यादा मेरे बारे में सोच रही हैं। यहीं एक बात से जाहिर होता है कि वह मुझे कितना चाहती हैं। अब आप ही उसे समझाइए शास्त्री जी। जितना हम दोनों एक दूसरे को समझते हैं। हमें शब्दों की कोई आवश्यकता नहीं है। मैंने उसकी खामोशी को सुना है, उसकी खामोशी को पढ़ा है। इसके आगे वो लफ्जों में और क्या कहेंगी। मेरे कुछ भी कहने से पहले वो मुझे समझ लेती हैं। अब तो हम दोनों एक दूसरे की भाषा बोलने लगे हैं। और वो कहती हैं कि वो कुछ नहीं जानती। हाॅं कहना नहीं चाहती, ना कह नहीं पाती।
शास्त्री जी - समझ नहीं आ रहा प्रभात, कि मैं क्या करूॅं। किसकी खुशी के बारे में क्या सोचूॅं। मैं तो जैसे उलझ कर रह गया हूॅं।
प्रभात - कोई उलझन नहीं हैं शास्त्री जी। मैं एक खुली किताब जैसा हूॅं, जब चाहें पढ़ सकते हैं। बस उसमें अपनी एक हाॅं लिख दीजिए। ये प्रभात सिर्फ प्रियंवदा का होगा। किसी और का नहीं। जिंदगी के सफ़र की हमसफ़र सिर्फ प्रियंवदा होगी, नहीं तो प्रभात तन्हा ही ये सफ़र तय करेगा। क्योंकि प्यार सिर्फ एक बार होता है बार - बार नहीं। और प्रभात को प्रियंवदा से प्यार हो गया है।
अब इजाजत दीजिए शास्त्री जी मुझे जो आपसे कहना था मैंने कह दिया हैं। अगर आपने बेटा कहा हैं तो बेटे की खुशी लिए एक बार सोचना जरूर। चलता हूॅं।
शास्त्री जी - प्रभात अगले हफ़्ते प्रियंवदा का ऑपरेशन हैं बेटा। आप साथ रहोगे ना ।
प्रभात - जी जरूर। आपके साथ अस्पताल तक जरूर चलूॅंगा। फिर दूसरे दिन वहीं से माॅं को लेने जाऊॅंगा। वहीं आपको और प्रियंवदा को माॅं से मिलाऊॅंगा।
शास्त्री जी - चलो ठीक है। मैं प्रियंवदा से बात करूॅंगा।
प्रभात - ( मुस्कुराते हुए ) तो अब आज्ञा दीजिए।
प्रभात जाते - जाते शास्त्री जी के चरण स्पर्श करता है। और कमरे से बाहर निकलता हैं। तो उसकी नजर प्रियंवदा पर पड़ती है। प्रियंवदा दरवाजे के पास खड़ी छुपकर दोनों की बात सुन रही होती है। प्रभात प्रियंवदा के पास रुकता हैं, और कहता हैं।
प्रभात -
" गुनगुनाता हुआ भॅंवरा जाकर माली से बोला,
एक कली की मोहब्बत की हसरत में रोज तेरी बगियाॅं में आता हूॅं।
दे दे इजाजत मुझे कली पर फना हो जाने की,
जिसकी मोहब्बत में हर रोज मैं ना जाने कितने काॅंटों से टकराता हूॅं।"
हमारी बातें सुन रही हो। आज तुम्हारा हाथ माॅंगा है। एक दिन ऐसे ही तुम्हें अपने साथ विदा कर ले जाऊॅंगा अपनी दुल्हन बनाकर। अपना ख्याल रखना, बहुत जल्द मिलते हैं। दोस्ती को नए रिश्ते में बदलने के लिए।
प्रियंवदा पलकें झुका लेती हैं। और प्रभात चला जाता है। बाद में अपनी माॅं को सारी बातें बताता है। वहाॅं शास्त्री जी प्रियंवदा से बात करते हैं। और प्रियंवदा से प्रभात की बात समझने के लिए कहते हैं। और एक बार प्रभात के परिवार से मिलने के लिए उसे मन से तैयार करते हैं।

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