( भाग -7 )
उस रात प्रियंवदा कुछ खोई - खोई सी थी। उसके माता - पिता उसके चेहरे की खामोशी देखकर पूछते हैं।
प्रियंवदा की माॅं - क्या हुआ बेटा, आज कुछ खोई - खोई सी हो।
प्रियंवदा - सिर हिलाते हुए ना कहती हैं। और हल्का - सा मस्कुकाकर अपने कमरे में चली जाती हैं।
वो रात मानो उसे जगाने वाली थी। कई सवालों से घिरी प्रियंवदा अपने आप में ही उलझकर रह गई थी। उधर कई रातों से प्रियंवदा से प्यार के इजहार को बेकल प्रभात आज सुकून से अपने प्यार के सुहाने सपने देख रहा था। बड़ी अजीब थी ये रात। कहीं कोई सारी रात जागा। तो कहीं कोई सारी रात सपनों कि दुनिया में था।
प्रियंवदा रात भर खिड़की के पास बैठी चाॅंद को निहारकर कभी अपनी कमी के लिए अपने भाग्य कोसती, तो कभी प्रभात के प्यार के इजहार को याद कर होठों पर मुस्कुराने लगती। उसे समझ नहीं आ रहा था, कि वो क्या करें, कैसे प्रभात के दिल से खुद को दूर करें। आखिरकार वह निर्णय लेती हैं कि कल से वह प्रभात से नहीं मिलेगी। और ना ही बात करेंगी। दूसरी ओर प्रभात चाॅंद को देख मुस्कुराते हुए कहता हैं।
"यूॅं हैरान ना हो मेरे चेहरे का नूर देखकर,
ये उसकी बेपनाह मोहब्बत का असर हैं।
माना आज उसे इकरार - ए - मोहब्बत नहीं तो क्या,
मेरे ख्यालों में खोई,मेरी तरह उसकी भी तुझ पर ही नजर हैं।"
दोनों की रात आंखों - आंखों में बीत जाती हैं। और पता ही नहीं चलता कि कब सुबह हो गयी। सुबह होते ही प्रभात तैयार हो जाता हैं।
प्रभात - गोपी जी नाश्ता कहाॅं हैं। जल्दी कीजिए, मुझे देर हो रही है।
गोपी - क्या बात है सर जी, आज बहुत खुश लग रहे हो। लेकिन आंखें देख कर लग रहा है आप सारी रात सोए नहीं है। तबीयत तो ठीक है।
प्रभात - क्या गोपी तुम भी ना, एक ओर कहते हो मैं खुश हूॅं, दूसरी ओर कहते हो मैं सोया नहीं हूॅं।
गोपी - जी; सर जी, जरूरी नहीं कि इंसान सिर्फ परेशानी में सारी रात जागे। कभी - कभी कोई खुशी भी सारी रात जगाती हैं। जैसे कोई खूबसूरत सपना।
प्रभात - क्या बात है गोपी जी, आप तो बड़े चतुर हैं। लगता है आप भी कभी ना कभी किसी के ख्वाब में सारी रात जागे हैं।
गोपी - क्या सर जी आप भी बस।
प्रभात - अच्छा गोपी मैं चलता हूॅं।
गोपी - ठीक है सर जी।
प्रभात अपने शोधकार्य के लिए चला जाता हैं। आज कई दिनों बाद वह बड़ी तल्लीनता से अपना कार्य करता है। और लौटते समय कुछ सुंदर फूलों का एक गुलदस्ता लेकर शास्त्री जी के घर पहुॅंचता हैं। पर शास्त्री जी आज शहर गए होते हैं। तो उसकी मुलाकात शास्त्री जी से ना होकर प्रियंवदा से होती है। प्रभात फूलों का गुलदस्ता देते हुए कहता हैं।
प्रभात - ये फूल इन्हें मेरे प्यार का पहला उपहार समझना।
प्रियंवदा फूल मेंज में रखते हुए अन्दर जाने लगती हैं। तभी वहाॅं प्रियंवदा की माॅं आ जाती हैं।
प्रियंवदा की मां - अरे प्रभात बेटा तुम,
कब आए ?
प्रभात - बस अभी - अभी आया हूॅं। वो रास्ते में एक महिला फूल बेच रही थी। तो मैंने खरीद लिए, अब मैंने सोचा कि मैं क्या करूॅंगा इन फूलों का। तो सोचा प्रियंवदा को फूल बहुत पसंद है। तो क्यों ना उसे ही देता चलूॅं। पर आज शायद इसे ये फूल पसंद नहीं आए।
प्रियंवदा की मां - अरे क्यों नहीं पसंद आएंगे, बहुत सुंदर फूल हैं। मैं इन्हें अंदर सजा कर आती हूॅं, तब तक तुम दोनों बातें करो। और हाॅं प्रभात कल की तरह चले मत जाना, मैं साथ में चाय भी ला रही हूॅं। ठीक है।
प्रभात - जी बिल्कुल, हम बाहर आंगन में हैं। क्या हुआ प्रियम, मुझसे नाराज़ हो। आज पहले की तरह बात नहीं कर रही हो।
प्रियंवदा - (इशारों में कहती हैं ) मुझे इस नाम से मत बुलाओ प्रभात।
प्रभात - क्यों, डरती हो, कहीं ये नाम सुनकर तुम्हारा प्यार तुम्हारे चेहरे पर खुशी बनकर चमकने ना लगे।
प्रियंवदा - नजरें फेर वहाॅं से जाने लगती हैं।
प्रभात - सुनो प्रियम, तुम्हारी आंखें इतनी भारी क्यों हैं, कल सारी रात सोई नहीं क्या।
प्रियंवदा आश्चर्य से उसकी ओर देखती हैं।
प्रभात - वैसे किसी के ख्यालों में खोए चाॅंद को देखकर चाॅंद से सारी रात गिले - शिकवे करना ये प्रेमियों की पुरानी आदत है। और प्यार की निशानी भी।
प्रियंवदा वहाॅं से चली जाती हैं। और (मन ही मन सोचती हैं ) कितनी अच्छी तरह मुझे जानता है। ऐसा प्यार करने वाला तो किस्मत से मिलता है। पर मैं उसकी किस्मत नहीं बनना चाहती। मुझे उसके साथ में देखकर लोग क्या कहेंगे। कि प्रभात की पत्नी गूॅंगी है, बोल नहीं सकती। नहीं, नहीं मैं उसके साथ ऐसा नहीं होने दे सकती। प्रभात को पाकर मुझे तो सब कुछ मिल जाएगा, पर अपने जीवनसाथी के साथ कुछ पल बातें करने का सुख उसे कभी नहीं मिलेगा। मैं अपने जीवन की कमी को उसके जीवन की कमी नहीं बना सकती। पर मैं उसे समझाऊॅं कैसे, वो तो कुछ भी समझने को तैयार ही नहीं है। अब मुझे ही कुछ करना होगा।
प्रियंवदा की माॅं - प्रभात बेटा तुम अकेले बैठे हो प्रियंवदा कहाॅं गई।
प्रभात - जी शायद उसे कुछ काम होगा वो अंदर चली गई। आप चाय ला रही थी तो मैं आपके हाथ की चाय पीने के लिए रुक गया।
प्रियंवदा की माॅं - ठीक किया। ये लो चाय। आज शास्त्री जी भी शहर गए हैं। एक उम्मीद हैं शायद ऑपरेशन के बाद प्रियंवदा बोल सके। इसीलिए प्रियंवदा की सारी रिपोर्ट लेकर डॉक्टर से मिलने गए हैं। ना जाने क्या होगा।
प्रभात - सब ठीक ही होगा आंटी जी। आप घबराइए मत। वैसे भी प्रियंवदा में कमी ही क्या है, मेरा दिल कहता है बहुत जल्द उसके साथ सब अच्छा होने वाला है ।
प्रियंवदा की माॅं - तुम्हारी यहीं अपनेपन से भरी बातें तुम्हें अपनों से भी अधिक अपना बना देती हैं। सदा खुश रहो बेटा।
प्रभात - बड़ों का यहीं आशीर्वाद तो चाहिए आंटी जी। अब मैं चलता हूॅं, शास्त्री जी से मिलने फिर आऊॅंगा। मेरे लिए कोई सेवा हो तो बताइएगा।
प्रियंवदा की माॅं - जरूर बेटा, आते रहना।
प्रभात चला जाता है। शास्त्री जी को शहर में और दो चार दिन लग जाते हैं। इस बीच प्रभात जब भी शास्त्री जी के घर आता या कहीं भी आते -जाते प्रियंवदा से मिलता तो वह उसे अनदेखा करके चली जाती। अगर प्रभात उससे मिलने या बात करने कोशिश भी करता तो वह उससे बात नहीं करती हैं। उसकी तरफ देखती भी नहीं है। एक दिन प्रभात भी जिद में आकर उसके सामने आकर खड़ा ही जाता है और बात करता है।
प्रभात - तुम्हें मुझे अनदेखा करके कहीं जाने की जरूरत नहीं है प्रियम। मैं जानता हूॅं, तुम जान - बूझकर मेरे साथ ये सब कर रही हों। तुम्हें क्या लगता है। तुम ये सब करोगी तो मुझे तुमसे नफरत हो जाएगी। और फिर मैं धीरे - धीरे तुम्हें भूल जाऊॅंगा। तो तुम गलत सोच रही हो। ऐसा कुछ नहीं होगा। और जो तुम सारा दिन मुझे भूलने की कोशिश करती हो ना, जरा सोचो इसका मतलब तुम सारा दिन मुझे ही याद करती हो। क्योंकि भूलने की कोशिश उन्हें की जाती हैं, जो कभी भी यादों से नहीं जाते। जो तुम हर समय ये देखती रहती हो कि मैं कहीं से तुम्हारे सामने ना जाऊॅं, तो इसका मतलब ये है कि तुम हर वक़्त मेरी राह देखती हो। तुम्हारी नजरें हर पल मुझे ही ढूॅंढा करती हैं। इसलिए जितना मुझसे दूर होने की कोशिश करोगी, उतना ही मुझे अपने पास महसूस करोगी, उतना ही मेरे ख्यालों में खोई रहोगी। इसलिए ये बेकार की कोशिश करना बंद करो। और समझो मेरे प्यार को, मुझसे शादी करने के लिए, मेरी जिंदगी बनने के लिए हाॅं कर दो ना प्रियम। अगर तुम हाॅं नहीं करना चाहती हो, तो मैं शास्त्री जी से तुम्हारा हाथ माॅंग लूॅंगा। तुम्हें अपनी दुल्हन बनाकर अपने साथ ले जाऊॅंगा। पर तुम्हें भूल जाऊॅं, ये कभी नहीं हो सकता।
इतना कहकर प्रभात प्रियंवदा का रास्ता छोड़ देता है। प्रियंवदा वहाॅं से चली जाती हैं। उसे कुछ समझ नहीं आता है कि वह क्या करें। कैसे प्रभात को समझाए। उधर प्रभात इतना कुछ कहकर वहाॅं चला आता है।
इधर प्रियंवदा को डर हैं कि कहीं वो पिताजी से आकर उनके रिश्ते की बात ना कर बैठे। वह प्रभात को एक खत लिखती हैं। पर उसे समझ नहीं आता है, कि वह ये खत प्रभात तक कैसे पहुॅंचाए। वो अपने हाथों से हलवा बनाती हैं, और एक टिफिन में हलवा रखकर उसमें चिट्ठी रखकर, माॅं से पूछ कर प्रभात को देने चली जाती हैं। अतिथि गृह पहुॅंचकर वह गोपी को इशारे से बुलाती हैं और कहती हैं कि यह हलवे का टिफिन अभी जाकर प्रभात को दे दो। माॅं ने भेजा हैं। तुम जाकर मेरे सामने उन्हें दे दो। नहीं तो हलवा ठंडा हो जाएगा।
प्रभात गेट के सामने ही बरामदे में बैठा काम कर रहा होता है। गोपी सीधा जाकर प्रभात को टिफिन देते हुए कहता हैं।
गोपी - सर जी ये हलवा शास्त्री जी के घर से आपके लिए आया है।
प्रभात - अभी रख दो गोपी, अभी मैं काम कर रहा हूॅं । बाद में खाता हूॅं।
गोपी - लेकिन दीदी ने कहा हैं, अभी मेरे सामने देकर आओ नहीं तो ठंडा हो जाएगा।
प्रभात - (आश्चर्य से ) दीदी ने, मतलब प्रियंवदा ने।
गोपी - हाॅं, वहीं गेट पर खड़ी हैं। कह रही थी माॅं ने भेजा हैं।अभी देकर आओ नहीं तो ठंडा हो जाएगा।
प्रभात - प्रियंवदा आई है, तुमने अंदर आने को नहीं कहा।
गोपी - कहा तो था। पर उन्होनें मुझसे यहीं कहा।
प्रभात गेट पर जाता हैं।
प्रभात - गोपी यहाॅं तो कोई नहीं है।
गोपी - शायद चली गई होंगी। आप हलवा अभी खाएंगे या रसोईघर रख दूॅं।
प्रभात टिफिन हाथ में ले, खोलकर देखता हैं तो उसे उसमें एक खत दिखाई देता हैं। वह टिफिन बंद करता हुआ गोपी से कहता है।
प्रभात - अभी खाऊॅंगा नहीं तो ठंडा हो जाएगा। स्वाद भी नहीं आएगा। तुम अपना काम करो, ठीक है। मैं अपने कमरे में ही खाऊॅंगा। तुम जाओ, मुझे कोई जरूरत होगी तो मैं आवाज दूॅंगा।
प्रभात रास्ते की ओर देखता हैं। तो उसे दूर कहीं प्रियंवदा जाती नजर आती हैं। वह मुस्कुराता हुआ अन्दर चला जाता हैं। और मन ही मन कहता है। पता नहीं अब कौन सा रास्ता निकाला है। मुझे खुद से दूर करने का, देखता हूॅं। ये कहते हुए वो टिफिन में से खत निकलता है। और पढ़ता हैं। प्रियंवदा ने खत में................
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