कुछ अनकहे, अनसुने शब्द ( भाग -5)

               ( भाग - 5 )

घर पहुंचते ही   
प्रभात - अच्छा आंटी अब आप आराम कीजिए और मुझे इजाजत दीजिए मैं चलता हूॅं।

प्रियंवदा की माॅं - अरे ऐसे कैसे बेटा, आपने हमारी इतनी मदद की हैं। और अभी तो मैंने ठीक से आपको धन्यवाद भी नहीं कहा।

प्रभात - नहीं आंटी धन्यवाद की कोई बात नहीं है। आप सब भी तो मेरा इतना ख्याल रखते हैं। मैं कब - कब आपको धन्यवाद कहता हूॅं। अब तो आप सब मेरा परिवार जैसे है। आप सब से इतना प्यार, इतना अपनापन जो मिला है।

इन दोनों की बात के दौरान ही प्रियंवदा जल्दी से अंदर जाकर एक गिलास पानी ले आती हैं। और प्रभात की तरफ पानी का गिलास बढ़ाती हैं। प्रभात उसकी ओर देखते हुए पानी का गिलास उठाकर पानी पीता है। फिर गिलास वापस ट्रे में रख देता हैं। तब तक प्रियंवदा वहीं खड़ी होती है। गिलास वापस लेकर वह ट्रे अंदर रखने जाती हैं।

प्रभात - जी अब मैं चलता हूॅं।

प्रियंवदा  की माॅं - बेटा चाय पीकर तो जाओ।

प्रभात - जी नहीं फिर कभी,

प्रभात जाने लगता हैं, तभी प्रियंवदा हाथ में एक टिफिन लेकर आती हैं। और दौड़ कर प्रभात के पीछे जाती हैं। प्रभात अभी थोड़ी दूर आंगन तक ही गया होता हैं। वह अचानक उसके सामने जाती हैं, इससे पहले कि प्रभात कुछ समझता, वह उसे टिफिन पकड़ाकर आ जाती हैं। 

प्रभात - अरे ये क्या ?

प्रियंवदा  की माॅं - रख लो बेटा मैंने भेजा है।

प्रभात - मुस्कुराते हुए, जी।
 
घर पहुॅंचकर प्रभात टिफिन खोलता है। तो क्या देखता है उसमें मिठाई और एक कागज भी रखा होता है। प्रभात कागज हाथ में लेकर पढ़ता हैं। तो उसमें ऊपर धन्यवाद लिखा होता है। नीचे प्रियंवदा।
प्रभात पढ़कर आश्चर्यचकित रह जाता है।

प्रभात - (अकेले बड़बड़ाता है) क्या लड़की हैं, अगर धन्यवाद ही कहना था, तो सबके सामने कहती। अच्छा तो सबके सामने बोलने में शर्म आती हैं। और चुपके से लिख कर धन्यवाद कहती हैं। बड़ी अजीब है। बड़ी नहीं, बहुत - बहुत अजीब है। कुछ कहना तो चाहती हैं। पर कहती कुछ भी नहीं है। और आज जब पहली बार कुछ कहा भी तो लिखकर। इसका धन्यवाद अब जाएगा कूड़ेदान में।
(वह कागज को गुस्से में मुठ्ठी में बन्द कर मोड़ता हैं। और हाथ ऊपर उठाते हुए जैसे फेंकने लगता है, हाथ अपने सीने के पास लाकर कागज को अपनी कमीज़ की जेब में रख लेता है। और बड़ा परेशान सा होकर कहता हैं।)
क्या हो गया मुझे, गुस्सा आता तो हैं पर गुस्सा कर नहीं पाता हूॅं। ( वह अपनी जेब से कागज निकलता हैं। उसे सही करता है। और उसे देखते हुए कहता है।) इस लड़की ने मुझे पागल करके छोड़ना है। और कागज अपनी डायरी में सॅंभालते हुए मुस्कुराता है। 
(और गोपी को आवाज देता हैं।) 
गोपी जी कहाॅं हो आप, एक चाय पिला दो।

गोपी - जी, सर जी लाया।

उधर शास्त्री जी के घर पर उनकी पत्नी शास्त्री जी को आज की घटना बताती हैं। 

शास्त्री जी - प्रभात ने इतनी मदद की मुझे भी एक बार तो उसका आभार व्यक्त करना ही चाहिए। मैं अभी प्रभात से मिलकर आता हूॅं।

शास्त्री जी प्रभात से मिलने अतिथि गृह की ओर चल दिए।

वहाॅं अतिथि गृह में प्रभात आंगन में बैठा चाय पी रहा होता है। तभी गोपी आता है।

गोपी - सर जी आपसे मिलने शास्त्री जी आए हैं।

प्रभात - अरे गोपी बता क्या रहे हो।उन्हें अंदर बैठाओ, कहाॅं हैं शास्त्री जी ?

इतने में शास्त्री जी स्वयं ही आंगन कि ओर आ जाते हैं।

प्रभात - आइए - आइए शास्त्री जी, कैसे हैं आप। चलिए अंदर बैठते हैं।

शास्त्री जी - अरे नहीं बेटा प्रभात, यहीं खुले आसमान के नीचे बैठकर बातें करते हैं। आंगन की खुली हवा में बड़ा सुकून मिलता है। आओ तुम भी बैठो।

प्रभात - जी जैसा आप कहें।  आपने आने की तकलीफ़ क्यों ली। मुझे बुलावा भेजा होता मैं खुद आपके पास आ जाता।
गोपी शास्त्री जी पहली बार आए हैं कुछ चाय - नाश्ता लाओ भाई।

गोपी - जी सर जी, अभी लाता हूॅं।

शास्त्री जी - अरे बेटा इन सब की कोई आवश्यकता नहीं है।

प्रभात - ऐसे कैसे नहीं है। आज आप मना नहीं करेंगे, और आपको लेना ही होगा।

शास्त्री जी - अच्छा ठीक है। वैसे मैं आज यहाॅं तुम्हारा आभार प्रकट करने आया हूॅं।
जो सहायता आज तुमने की हैं। बहुत - बहुत आभार बेटा।

प्रभात - शास्त्री जी ये क्या कह रहे हैं आप। आप इस तरह से मेरा आभार व्यक्त करके मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं। मैंने जो कुछ भी किया वो तो मेरा फर्ज था। और दूसरी बात मैंने इतना भी कुछ नहीं किया, कि आपको आभार व्यक्त करने यहाॅं तक आना पड़ा। आप सब मेरे परिवार जैसे है। कृपया ऐसे आभार व्यक्त ना करें।

शास्त्री जी - बेटा ये तो तुम्हारा विनम्र व्यवहार और अपनापन हैं। प्रियंवदा भी आपको धन्यवाद कहना चाहती थी पर.....

प्रभात - कोई बात नहीं शास्त्री जी, अगर वो कहना चाहती हैं। तो उनसे धन्यवाद मैं ले लूॅंगा। आज नहीं तो कल। पर आपसे नहीं क्योंकि आप मुझसे बड़े हैं। मेरे आदरणीय हैं।

शास्त्री जी - ( थोड़ा भावुक होते हुए)  प्रभात, बेटा मैं तो फिर भी कह दूॅंगा। पर प्रियंवदा शायद कभी नहीं कह सकती।

प्रभात - (घबराते हुए) क्यों ऐसा क्या हुआ 
हैं ? सब ठीक तो हैं।

शास्त्री जी - ये क्या कह रहे हो बेटा, क्या तुम नहीं जानते?

प्रभात - मैं क्या नहीं जानता शास्त्री जी। पहले आप बताए तो। 

शास्त्री जी - यहीं कि, प्रियंवदा बोल नहीं सकती हैं।

प्रभात - ये क्या कह रहे आप। मुझे नहीं पता। मैं इस बारे में कुछ नहीं जानता।
           मैंने कभी कुछ जानने की आवश्यकता ही नहीं समझी। हाॅं पर मैंने कभी उन्हें बोलते देखा नहीं।

शास्त्री जी - ( दुखी स्वर में ) बोलते हुए देखते भी कैसे। वह तो बोल ही नहीं पाती। ऐसा नहीं कि उसकी आवाज नहीं है। पर वो बोलने में असमर्थ हैं। डॉक्टर कहते हैं कि एक दिन वो बोल सकती हैं। उसका इलाज भी चल रहा है। उसका एक ऑपरेशन होना है। जिसके बाद शायद वह बोल पाए। बस ईश्वर से यही विनती है कि सब ठीक हो जाएं। मैंने बड़े प्यार से उसका नाम "प्रियंवदा" रखा था। प्रिय बोलने वाली, लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। प्रिय बोलना तो दूर, उससे बोलने का हक भी छीन लिया।
         लेकिन फिर भी वह जो भी इशारों में मुझसे कहती हैं, वह मुझे अति प्रिय लगता हैं। वैसे दिल की बहुत अच्छी है। कभी किसी का बुरा नहीं सोचती, कभी किसी से दुर्व्यवहार नहीं करती। अपने में खुश रहती हैं। फूलों के साथ समय बिताना उसे बहुत पसंद है। हर छोटी से छोटी चीज में खुशी ढूॅंढ लेती हैं। मुझे तो आश्चर्य हो रहा है। आपको कैसे नहीं पता प्रियंवदा के बारे में। आप तो उससे कई बार मिले हैं।

प्रभात - जी हाॅं मिला तो कई बार, मैंने उनसे बात भी की, कभी आप कहाॅं हैं पूछा, कभी स्वादिष्ट खाने के लिए धन्यवाद भी कहा। उन्होंने कभी जवाब नहीं दिया। बस मुस्कुरा देती थी। मुझे लगा अनजान लोगों से बात करना शायद उन्हें पसंद नहीं, इसलिए कभी जानने की कोशिश ही नहीं की। और किसी लड़की के विषय में उसके पीठ पीछे पूछूॅं ऐसे मेरे संस्कार नहीं है शास्त्री जी। 

शास्त्री जी - वाह बेटा तुम कितने निर्मल व्यवहार के हो। धन्य हैं आपके माता - पिता। जिन्होंने इतने अच्छे संस्कार दिए हैं। अच्छा बेटा अब मैं चलता हूॅं। एक बार फिर से आभार। और गोपी चाय - नाश्ता बहुत स्वादिष्ट था बेटा।

प्रभात - जी नमस्कार। मैं कल आकर आपसे मिलता हूॅं।

( प्रभात प्रियंवदा के बारे में जानकर स्तब्ध था। कल तक उसे जो गुस्सा उस पर आ रहा था।वहीं गुस्सा उसे आज खुद पर आ रहा था। वह बहुत बैचेन हो गया था। उसे समझ नहीं आ रहा था। कि किसी के साथ ऐसा कैसे हो सकता है। वह खुद को कोस रहा था। कि वह नहीं समझ पाया, वह बोल नहीं सकती। उसे समझ नहीं आ रहा था, कि कल वह उसका सामना कैसे कर पाएगा। वह सारी रात करवटें बदलता रहा, उसे नींद नहीं आ रही थी। उसे एक बार उससे बात करनी थी। उसे अपनी गलतफहमी के बारे में बताकर अपना मन हल्का था। उसकी सारी रात आंखों में गुजर जाती हैं।)
आज वह चांद को देख खामोशी से कुछ कहता है

"ऐ रात तेरा सफर आज क्यों थम सा गया है,
क्यों चांद से चांदनी रूठी हुई नजर आ रही हैं।
क्या तुम मेरे दिल की बेकरारी समझ कर रुक गए हो,
या मुझे ही हर चीज पर अपनी कहानी नजर आ रही हैं।"

सुबह होते ही प्रभात जल्दी से नहाकर तैयार हो जाता हैं। और टिफिन वापस करने के बहाने से शास्त्री जी घर पहुॅंचता है। वह जानता हैं कि इस वक़्त प्रियंवदा तुलसी पूजा करने के लिए आंगन में होती है। वह जैसे ही शास्त्री जी के घर पहुॅंचता है, प्रियंवदा पूजा कर रही होती है। वह प्रियंवदा के पास जाकर खड़ा हो जाता हैं। प्रियंवदा जैसे ही पूजा पूरी कर आंखें खोलती हैं तो पास ही खड़े प्रभात को देखती हैं। वह प्रभात को प्रसाद देती हैं, और अंदर जाने लगती हैं। 

प्रभात - प्रियंवदा, 

प्रियंवदा पीछे प्रभात की ओर देखती हैं।

प्रभात - मैं तुम्हारे बारे में कुछ नहीं जानता था।मुझे कल ही तुम्हारे पिताजी से पता चला। अगर पहले पता होता, तो तुम्हारे से यूॅं व्यंग्य में बात ना करता। मैं अपने व्यवहार के लिए शर्मिंदा हूॅं। हो सके तो मुझे माफ़ कर देना। आज मैं तुमसे यहीं कहने आया था। टिफिन लौटना तो बस एक बहाना था। ये लो टिफिन, मिठाई बहुत स्वादिष्ट थी। वैसे चोट कैसी हैं तुम्हारी?

 प्रियंवदा - ठीक है का संकेत करती हैं।

प्रभात - वैसे मैं अब हमारे बीच के अनकहे, अनसुने झगड़े को समाप्त कर दोस्ती करना चाहता हूॅं। अगर तुम चाहो तो।

प्रियंवदा - हल्की  - सी होठों पर मुस्कुराहट लाते हुए, मानों आंखों - आंखों में हाॅं कह रही हो।

प्रभात - तो ठीक है। जल्द मिलते हैं, नई दोस्ती के साथ, पर अभी मैं चलता हूॅं।

प्रियंवदा - हाॅं के संकेत में सिर हिलाती हैं।

आज प्रभात बहुत खुश था। मानों उसे दुनिया भर की खुशी मिल गई हो। ऐसे ही दोनों रोज मिलते हैं, जो बातें प्रभात जुबाॅं से कहता, वही बात का जवाब प्रियंवदा कभी इशारों से, कभी मुस्कुराकर, तो कभी बिन कहे आंखों से और खामोशी से देती। अब तो प्रभात, प्रियंवदा की हर बात को उसके कहने से पहले ही उसकी आंखों से पढ़ लिया करता था। कहीं ना कहीं प्रभात के मन में प्रियंवदा का जाने - अनजाने वाला ख्याल अब प्यार का रूप ले चुका था। वह प्रियंवदा को प्यार करने लगा था। क्योंकि उसका सारा दिन शोध में और सारी रात प्रियंवदा के ख्यालों में गुजरती थी। जब तक वह दिन में एक बार उससे मिल ना ले उसका दिन नहीं गुजरता था। अब प्रभात को एहसास हो गया था कि वह प्रियंवदा को प्रेम करने लगा हैं। और वह चाहता था कि वह जल्द से जल्द अपने प्रेम का इजहार कर दे। क्योंकि शायद अब उसके शहर लौटने का समय भी नजदीक था। वह निर्णय लेता है कि अब वह सही समय देख कर अपने प्यार का इजहार कर देगा।

           एक दिन वह प्रियंवदा से मिलने जाता हैं। पर शास्त्री जी के घर मेहमान आए होते हैं। और प्रियंवदा अपनी माॅं के साथ रसोई में व्यस्त होती हैं। प्रभात की आंखें उसे ढूॅंढ रही होती हैं। प्रभात की व्याकुलता उसकी आखों से साफ झलक रही होती हैं। इसी बीच प्रियंवदा खाना परोसने बैठक कमरे में आती हैं। प्रभात की बैचेनी उसकी आंखों से नहीं छुपती। प्रभात उसकी तरफ देखता हैं। वह समझ जाती हैं। कि जरूर प्रभात मुझसे कुछ कहना चाहता हैं। वे दोनों एक दूसरे की ओर देखते हैं।
            
प्रभात - ( अपने प्यार का इजहार करने को व्याकुल प्रियंवदा को तरसती निगाहों से देखते हुए खामोशी से कहता है। कहाॅं थी अब तक ? क्या कर रही थी ? मैं कब से तुमसे कुछ कहना चाहता हूॅं। एक बार मिलो ना प्लीज)  

प्रियंवदा - ( आंखों - आंखों से कहती हैं। क्या हुआ ? कुछ कहना था ? थोड़ा इंतजार करो, अभी मुश्किल होगा, हम शाम को मिले बगीचे में।)

प्रभात - ( गहरी साॅंस भरते हुए, पलकें बन्द करते हुए, कहता है ठीक है,) अच्छा शास्त्री जी आप भोजन करें, मुझे आज्ञा चाहिए। मैं अभी चलता हूं।

शास्त्री जी - अरे प्रभात रुको खाना खाकर जाओ।

प्रभात - जी नहीं, मुझे कुछ जरूरी काम याद आ गया। फिर कभी।
(वह प्रियंवदा की ओर देखता हैं। और वहाॅं से चला जाता हैं।)

कमरे में कई मेहमान होते हैं पर वह दोनों खामोशी से आंखों - आंखों में एक दूजे से कई बातें कह जाते हैं। और किसी को पता भी नहीं चलता।

            लेकिन प्रियंवदा के मन में कई सवाल होते हैं। क्या जो मैं कहना चाहती थी, वह समझ गया होगा। मुझे उसकी आंखों से क्यों लगा कि वह कुछ कहना चाहता हैं। मेरी खामोशी से उसे क्या समझ आया कि ये कहते ही शाम को मिलते हैं, वो चला गया। हे भगवान ये क्या हो रहा है। ये कैसा एहसास है। क्यों उसके दिल की बैचेनी मेरे दिल ने महसूस की। प्रियंवदा एक अजीब सी कश्मकश थी। 

प्रियंवदा - ( इशारे से ) पिताजी, मैं बगीचे में प्रभात से मिलने जा रही हूॅं। वहाॅं वो मुझे कुछ फूलों के बारे में बताने वाला है। क्या मैं जाऊॅं। 

शास्त्री जी - जाओ बेटा, जल्दी आ जाना।
 
शास्त्री जी से पूछ कर वह बगीचे में चली जाती हैं। वहाॅं जाकर देखती हैं कि प्रभात पहले से ही उसका इंतजार कर रहा होता है। प्रभात को वहाॅं देख प्रियंवदा को बड़ा आश्चर्य होता है। फिर.............


  

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