पापा की परी कहलाने वाली बिटिया,
फिर धोखे का शिकार हो गई।
पापा की पलकों पर पलने वाली गुड़िया,
ना जाने कब प्यार में बीमार हो गई।
इतिहास साक्षी है जब-जब सीता,
हठयोग से लक्ष्मण रेखा पार करेंगी ।
स्वर्ण मृग की क्षणिक तृष्णा में,
धैर्य की दहलीज पार करेंगी।
तब - तब मारीच बनकर स्वर्ण मृग,
कोमल भावों का जाल रचेगा।
छद्म वेश धरकर कोई रावण,
तब -तब सीता का हरण करेगा।
वह सतयुग था, सीता लड़ी सतीत्व बचाने को,
भला कलयुग में कहां किसी का हरण होता है।
संस्कारों की दहलीज स्वयं लांघकर,
स्वेच्छा से रावणों का चयन होता है।
तोड़कर माता-पिता का गुरुर,
उस छद्मवेषी से प्यार अपार होता है।
आधुनिकता का अनुसरण करने की होड़ में,
हर रोज संस्कारों का दाह संस्कार होता है।
वह बाबुल की बगिया की नाजुक कली होती है,
वह छद्मवेषी आवारा भंवरा होता है।
कली घर आंगन को महकाने की खुशियां लिए लेकिन,
वह तो कलियों की ख्वाहिशों का सौदागर होता है।
हर रोज प्रेयसी के ख्वाबों को एक नव पंख लगा कर,
उसी की अस्मत से नित खिलवाड़ होता है।
बांधकर आंखों पर झूठे विश्वास की पट्टी,
मोहब्बत के नाम पर वासना का व्यापार होता है।
छद्मवेषी मोहब्बत को अपनी जिंदगी कहकर,
चली आई वो जिंदगी देने वालों की ठुकरा स्नेह दौलत।
वह नादान ना समझ पाई उसके बेपाक इरादों को,
कि उसे मोहब्बत नहीं, मोहब्बत के नाम पर है जिस्मानी लत।
एक ओर हुस्न पर गुमान होता है,
एक ओर जवानी की भूख होती है।
एक ओर सुहाने सपने जिंदगी के,
एक ओर वासना की मौन हूक होती है।
वह समझती भी कैसे; ये उम्र का तकाजा है यारों,
जहां चारों ओर जवानी का शोर होता है।
लड़कपन में समझदारी का नया-नया शौक उस पर,
उम्र का यही पड़ाव बनने और बिगड़ने का दौर होता है।
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