आधुनिक कविता के कुशल, समर्थ कवि जिनके गीतों ने आधुनिक हिंदी कविता को नए आयाम दिए, नई दिशा दी। हिंदी कविता को नई परिभाषा देने वाले हिंदी के प्रसिद्ध कवि तथा गांधीवादी विचारक और दूसरा सप्तक के प्रथम कवि "भवानी प्रसाद मिश्र जी, का जन्म 29 मार्च सन् 1914 को गांव टिगरिया, तहसील सिवनी मालवा जिला होशंगाबाद मध्य प्रदेश में हुआ था। मिश्र जी की प्रारंभिक शिक्षा क्रमशः सोहागपुर, होशंगाबाद, नरसिंहपुर और जबलपुर में हुई। सन् 1934 - 35 में उन्होंने हिंदी, अंग्रेजी और संस्कृत विषय से बी ए की परीक्षा उत्तीर्ण की। महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावित मिश्र जी ने गांधीवादी विचारों के अनुसार शिक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से एक स्कूल खोलकर अध्यापन कार्य शुरू किया। किंतु किन्हीं कारणों से उसी दौरान सन् 1942 में गिरफ्तार हो गए। और सन् 1945 में रिहा हुए। और उसी वर्ष महिला आश्रम वर्धा में शिक्षा प्रदान करने हेतु शिक्षक की तरह गए। और वही शिक्षक के रूप में चार - पांच साल कार्यरत रहे।
मिश्र जी ने नियमित रूप से कविताएं लिखना लगभग 1930 से ही प्रारंभ कर दिया था। और उनकी कुछ कविताएं हाईस्कूल पास करने से पहले ही "पंडित ईश्वरी प्रसाद वर्मा" के संपादन में निकलने वाले "हिंदू पंच" में प्रकाशित हो गई थी। सन् 1932 - 33 में मिश्र जी "माखनलाल चतुर्वेदी जी" के संपर्क में आए। "चतुर्वेदी जी" मिश्र जी से आग्रह पूर्वक उनकी कविताएं "कर्मवीर" में प्रकाशित करते रहे। "हंस" में भी उनकी कविताएं प्रकाशित हुई थी। तत्पश्चात् "अज्ञेय जी" ने "दूसरा सप्तक" में भी उनकी रचनाएं प्रकाशित की। "दूसरा सप्तक" में प्रकाशन के पश्चात् प्रकाशन का क्रम नियमित होता गया। मिश्र जी ने "चित्रपट" के लिए भी संवाद लिखे। तथा मद्रास के ए०बी०एम० में संवाद निर्देशन भी किया। मिश्र जी मथुरा से मुंबई आकाशवाणी के प्रोड्यूसर बनकर आए। बाद में उन्होंने आकाशवाणी के केंद्र दिल्ली में भी काम किया। जीवन के 33 वर्ष से अर्थात् मात्र 33 वर्ष की आयु से ही मिश्र जी खादी पहनने लगे थे। मिश्र जी ने स्वयं को कभी भी निराशा के गर्त में डूबने नहीं दिया। अपने जीवन में जिस तरह से वे सात - सात मौत से लड़े। ठीक उसी प्रकार से आजादी से पहले गुलामी से लड़े। और आजादी के बाद भी तानाशाही से लड़े। विषम से विषम परिस्थितियों में भी मिश्र जी ने नियमबद्ध होकर सुबह - दोपहर - शाम कविताएं लिखी। जो बाद में "त्रिकाल संध्या" नामक पुस्तक में प्रकाशित हुई। प्यार से लोगों ने "भवानी भाई" कहकर संबोधित किया करते थे।
एक लम्बा सफर तय करते हुए मिश्र जी अपने जीवन की सांध्य बेला में दिल्ली से नरसिंहपुर (मध्य प्रदेश) एक विवाह समारोह में गए थे। और तभी वे अचानक बीमार हो गए। और उसी दौरान मिश्र जी ने अपने सगे संबंधियों के बीच अपनी अंतिम सांस लेते हुए 20 फरवरी सन् 1985 में अपनी देह त्याग कर इस संसार को अलविदा कह दिया। अपने अंतिम पलों में भी उन्होंने किसी को किसी भी प्रकार का कोई कष्ट नहीं पहुंचाया।
प्रमुख कृतियां
भवानी प्रसाद मिश्र की प्रमुख कृतियां इस प्रकार से हैं --
कविता संग्रह -
गीत फरोश
चकित है दुख
गांधी पंचशती
बुनी हुई रस्सी
खुशबू के शिलालेख
त्रिकाल संध्या
व्यक्तिगत
परिवर्तन जिए
अनाम तुम आते हो
इदम् न मम
शरीर कविता; फसलें और फूल मानसरोवर दिन
संपत्ति
अंधेरी कविताएं
तूस की आग
कालजयी
नीली रेखा तक
सन्नाटा
बाल कविताएं --
तुर्कों का खेल
संस्मरण --
जिन्होंने मुझे रचा
निबंध संग्रह --
कुछ नीति कुछ राजनीति।
पुरस्कार --
भवानी प्रसाद मिश्र "भवानी भाई" को 1972 में उनकी कृति "बुनी हुई रस्सी" के लिए "साहित्य अकादमी पुरस्कार" मिला। 1981-1982 में उत्तर प्रदेश "हिंदी संस्थान" का "साहित्यकार सम्मान" से सम्मानित किया गया।
1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन के "शिखर सम्मान" से अलंकृत किया गया।
काव्यगत विशेषताएं
सर्वविदित है कि मिश्र जी का काव्य भाव और शिल्प की दोनों की दृष्टि से पूर्णतः समर्थ है। अपनी कविताओं में उन्होंने अपनी अनुभूतियों को बड़ी सरलता से व्यक्त किया है। मिश्र जी के काव्य का भाव पक्ष, सामाजिक बोध, संवेदनशीलता, आत्मीयता तथा सहजता आदि से समृद्ध हैं। मिश्र की कविता व्यक्तिवादी नहीं है। उनकी कविता सामाजिक भाव को साथ लेकर चलती है। उनके काव्य जनसामान्य के जन - जीवन की विषम परिस्थितियों तथा उनके संघर्ष को दर्शाता है। मिश्र जी ने अपने काव्य में सदैव सामाजिक अन्याय, शोषण, अत्याचार का विरोध किया है। इनके प्रति जन जागरूकता फैलाई है। सामाजिक विषम कार्य विधियों के विरुद्ध आवाज उठाने की प्रेरणा प्रदान की है। जहां एक और मिश्र जी की कविताएं सामाजिक परिपेक्ष्य से संबंध है। वहीं दूसरी ओर अनुभूति और संवेदना दोनों ही भाव उनके काव्य दृष्टव्य होते हैं। उनके काव्य में हमें आत्मीयता का गुण भी मिलता है। मिश्र जी की कविताएं पढ़ते समय महसूस होता है, मानो कवि पाठकों से सीधा बात कर रहा है। जहां अपनी कविता "गीतफरोश" में मिश्र जी ने अपने फिल्मी दुनिया में बिताए समय को स्मरण कर कवियों द्वारा अपनी कविताओं के विक्रेता बन जाने की विडंबना को अति मार्मिकता के साथ कविता के रूप में व्यक्त किया है। वहीं "सतपुड़ा के जंगल" नामक कविता पाठकों को प्रकृति की खूबसूरत दुनिया की सैर कराती है। जो प्रमाणित करती है कि प्राकृतिक सौंदर्य भी उनकी लेखनी से अछूता नहीं रहा है। मिश्र जी की कविताओं में प्रकृति चित्रण के भी दर्शन होते हैं। मिश्र जी ने जीवन की वास्तविकता और अनुभव दोनों को साथ लेकर का काव्य सृजन किया है। उनकी कविताएं गेय है। वे गूढ़ बातों को भी बड़ी सरलता और सहजता से अपने काव्य में कह जाते हैं। उन्होंने अपनी कविताओं में यथार्थ की अभिव्यक्ति की है। उनके सृजन में मात्र जीवन की कटुता, निराशा और विषमता का ही चित्रण नहीं दिखाई देता, वरन जीवन के यथार्थ के पीछे मानवता की विजय और सुखमय भविष्य की कल्पना भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। मिश्र जी ने अपनी रचना प्रक्रिया और अपने अनुभवों से साहित्यिक विचार और सिद्धांत विकसित किए हैं।
"कवि से" नामक कविता में उन्होंने कहा भी है --
"जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख
और उसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख"
इन पंक्तियों से स्पष्ट होता है कि अपने कथन में मिश्र जी ने सामाजिकता और सादगी को स्वयं भी स्वीकार किया है। और इसी विचार का अन्य कवियों को भी संदेश दिया है। मिश्र जी का काव्य अविस्मरणीय है। जो पाठकों को सदैव स्मरण रहता है।
भाषागत विशेषताएं
भवानी प्रसाद मिश्र जी की भाषा सहज, सरल और जन सामान्य की भाषा है। मिश्र जी ने जनता की बात जनता की भाषा में लिखी है।सप्तक" "दूसरा में मिश्र जी ने अपनी भाषा शैली के विषय में लिखा भी है। कि "वर्ड्सवर्थ" की एक बात मुझे बहुत ही पटी कि कविता की भाषा यथासंभव बोलचाल के करीब हो। तो मैंने जाने-अनजाने कविता की भाषा सहज रखी। बहुत मामूली रोजमर्रा के सुख-दुख मैंने इनमें कहे हैं। जिनका एक शब्द भी किसी को समझाना नहीं पड़ता है।
मिश्र जी की भाषा शैली में एक अद्भुत सौंदर्य है। वो इसलिए क्योंकि उनकी लेखनी में उनके अनुभवों की मौलिकता और ईमानदारी होती है। जिससे उनके काव्य की भाषा पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करती है। उन्होंने सदैव सामान्य बोलचाल की भाषा में साहित्य रचना की। सामान्य भाषा को काव्य भाषा का आदर प्रदान किया। मिश्र जी की यही विशेषता हिंदी काव्य को उनकी सबसे बड़ी देन है। मिश्र जी ने अपने काव्य में तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशी शब्दों का अर्थानुसार वह भावनानुसार कुशल प्रयोग किया है। उनकी भाषा में क्षेत्रीय भाषा के लोक प्रचलित शब्दों का प्रयोग अधिक दिखाई देता है। जो पाठकों को उनके काव्य में अंतर्निहित भावों से जोड़ता है।वे अपने भावों को अपनी कविता में शाब्दिक विविधता के आधार पर भली-भांति बोधगम्य बनाते हैं। लोकभाषा की अधिकता के कारण ही उनके काव्य में लयात्मकता व भावानुकूल तीखापन दृष्टव्य होता है। छोटे-छोटे पदों में प्रत्येक दो पंक्तियों के बाद तुक के बदल जाने से उनकी भाषा में लय और गति का सुंदर समन्वय दिखायी देता है। छोटे-छोटे छंदों में बड़ी से बड़ी बात को आसानी से कह देना उनकी रचनाधर्मिता प्रदर्शित करता है। मिश्र जी का काव्य सृजन बिम्बात्मक व प्रतीकात्मक है। बिम्ब व प्रतीक के माध्यम से शब्द चित्र प्रस्तुत करने में वे कुशल हैं। बिम्बों व प्रतीकों का यथा स्थान सफल प्रयोग मिश्र जी की कविताओं के अतिरिक्त अन्यत्र दुर्लभ है। उनके काव्य में भाव बोध है। अर्थ व शब्द की दृष्टि से कहीं भी जटिलता व बोझिलता दिखाई नहीं देती हैं। भावाभियक्ति, अभिव्यक्ति की सहजता, आत्मीयता, अर्थ गाम्भीर्य, लयात्मकता, कलात्मकता, गति मिश्र जी की भाषा शैली की प्रमुख विशेषताएं हैं।
मिश्र जी का सादगी भरा शिल्प आज भी नए कवियों के लिए प्रेरणास्रोत है। उनके काव्य में भारत का स्वप्न झलकता है। उनकी कविताएं समयानुसार परिवर्तन व सुधार की अभिव्यक्ति है। अनुभूति की सहज अभिव्यक्ति ने ही मिश्र जी को आधुनिक हिंदी काव्य में एक विशेष स्थान प्रदान किया है।
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