अहो पथिक किस ओर चलें,
कहाॅं तुम्हारा धाम है?
अभी कितनी दूर है मंजिल?
और क्या तुम्हारा नाम है?
धरती; माॅं के आंचल सी,
अंबर; पिता का साया मानो।
पंचतत्व से निर्मित काया को,
आप प्रकृति पुत्र जानो।
अभी तो राह का राही हूॅं,
पथिक है मेरा नाम।
ना जाने किस ओर है मंजिल,
ना जानूॅं पथ का आयाम।
ढूॅंढ रहा पल भर सुकून,
सुख की स्मृति आंखों में।
महके आंगन खुशियों से जो,
ऐसा एक घरौंदा शाखों में।
ना कुशल राजनीति केशव जैसी,
ना मर्यादा सम पुरुषोत्तम राम।
ना प्रेम तपस्या राधा रानी जैसी,
ना भक्ति में मीरा सा कोई नाम।
ना सीता - सा सतीत्व दिखा,
ना जननी में अनुसूइया माता।
ना भाई दिखा कोई भरत के जैसा,
ना दानवीर कर्ण सा कोई दाता।
मैं बाट जोहता बटोही फिर भी,
मन में आस लिए फिरता हूॅं
पर देख वर्तमान का भयावह दृश्य,
मैं सॅंभल - सॅंभल गिरता हूॅं।
जीवन पथ के कितने कंटक,
पद भेद लहू बहाते हैं।
निरुत्तर थम कर लौटने वाले,
पथिक मन को नहीं भाते हैं।
कई प्रश्न लिए इस व्याकुल मन में,
अभी अविराम अनंत तक चलना है।
राह कई और दूर हैं मंजिल,
मुझे समय के साॅंचे में ढलना है।

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