रिवाज कहने को तो मात्र एक शब्द है। लेकिन यह हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग है। हमारे संपूर्ण जीवन का अधिकतम समय इन रीति-रिवाजों के निर्वहन में व्यतीत हो जाता है। यदि यह कहा जाए, कि यह हमारे समाज की आधारशिला है। तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि हमारे सामाजिक संबंधों का जो एक ताना-बाना है। वह इन्हीं रिवाजों से निर्मित है। रिवाज कई बार व्यक्तिगत होते हैं, तो कई बार सामूहिक और सामाजिक होते हैं। रिवाजों का निर्वहन आमतौर पर स्वयं के लिए कम ही होता है। रिवाजों का निर्वहन हमारे परिवेश में सम्मिलित सदस्यों के प्रति किए गए व्यवहार पर आधारित होता है। किसी भी रिवाज का निर्वहन कर्ता स्वयं के लिए नहीं करता। वह इन रिवाजों को किसी अन्य व्यक्ति के प्रति अपना कर्तव्य पूर्ण करने हेतु करता है। या समाज की प्रतिक्रिया को दृष्टिगत रखते हुए करता है।
वास्तव में रिवाज क्या हैं? पूर्व काल में हमारे पूर्वजों द्वारा कुछ कार्यविधियों को नियमबद्ध कर रिवाज बनाए गए हैं। जिनका निर्वहन अनिवार्य रूप से करने पर जोर दिया जाता है। रिवाज हमारी संस्कृति से हमें विरासत में मिलते हैं। यदि हम रिवाजों पर एक गहन दृष्टि डालें, तो यह एक प्रकार की अनुशासन प्रणाली संबंधी व्यवस्था हैं। जिसे दीर्घकाल तक सुचारू रूप से व्यवस्थित करने हेतु एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित किया गया हैं। जिस कारण ये पूर्वकाल से आज तक स्थापित हैं। रिवाजों के अंतर्गत कुछ नियम, त्योहार और आतिथ्य आते हैं। साल भर में मनाए जाने वाले सभी प्रमुख त्योहारों को यदि हम देखे; तो ये त्योहार जिन महीनों में मनाए जाते हैं। उन त्योहारों को मनाने की विधि उन महीनों के मौसम के अनुसार ही होती है। जैसे मकर संक्रांति में ठंड में आती है। और उसमें गुड़ से बने पकवान खाए जाते हैं। ठंडियों में गुड़ खाने से स्वास्थ्य लाभ होता है। सावन में मनाए जाने वाले सभी त्योहार हरियाली से संबंधित होते हैं। और जैसे राखी का त्योहार साल भर में एक बार आता है तो साल भर में यदि भाई-बहन अपनी व्यस्तता के कारण एक दूसरे से नहीं भी मिल पाए, तो चाहे वो कितनी भी दूर क्यों न हो पर राखी के बहाने वह एक दूसरे से अवश्य मिलते हैं। एक दूसरे के सुख - दुख बांट पाते हैं।
ऐसे ही यदि हम कुछ प्रचलित रिवाजों की बात करें। तो महिलाओं के लिए मासिक धर्म में अलग बैठना, रसोई में भोजन ना बनाना तथा प्रतिदिन स्नानादि कर स्वयं को साफ रखने की व्यवस्था है। यह व्यवस्था नारी के प्रति हीन भावना से नहीं है। यदि हम इस स्थिति समझने का प्रयास करे। तो उन पांच दिनों में स्त्री अत्यंत मानसिक और शारीरिक पीड़ा से जूझ रही होती हैं।
तो यह नियम बड़ी समझदारी से बनाए गए है। कि उस अति पीड़ादायक स्थिति में उन्हें आराम करने को मिले। वह अपनी साफ सफाई का ध्यान रखें, ताकि किसी भी प्रकार का संक्रमण न हो।
तो ये सभी रिवाज आज मनुष्य को अनुशासित करने हेतु बनाए गए हैं। हमारे पूर्वज बड़े ही बुद्धिजीवी थे। उन्होंने दूर दृष्टि रखते हुए रिवाजों की स्थापना की। वह अलग बात है कि अपने व्यक्तिगत स्वभाव के कारण लोगों ने इनके पालन व निर्वहन को अनिवार्य की श्रेणी से हटाकर कट्टरपंथी की श्रेणी में खड़ा कर दिया। तथा बड़ी सरलता से मिलजुल कर निभाए जाने वाले इन रिवाजों को रूढ़िवादी आवरण पहना दिया है। तथा इन्हें यथा सामर्थ्य जीवन शैली के लिए बोझिल बना दिया हैं। यह रिवाज तो कुछ अमूल -चूल परिवर्तनों के साथ पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते गए। परंतु साथ ही साथ परिवर्तित परिवेश के प्रति परिवर्तित विचारों ने इस पर वाद - विवाद, चर्चा - परिचर्चा प्रारंभ कर दी। अब जो यह अनिवार्य रूप से निभाए जाने वाले रिवाज थे। वहीं अब ऐच्छिक हो गए हैं। अर्थात् उनका निर्वहन इच्छानुसार किया जाने लगा। अनिवार्य से ऐच्छिक स्वरुप में परिवर्तित होने के बाद भी ये समाज में पूर्णरूपेण मान्य है। और आज भी समाज के प्रत्येक सांस्कृतिक कार्यक्रम में इन रिवाजों की प्रमुखता देखने को मिलती है। और मेरे मतानुसार यह जरूरी भी है। क्योंकि कहीं ना कहीं यह रीति रिवाज हमारे परिवेश की सुंदरता है। इनसे ही हमारा समाज, हमारा व्यक्तित्व शोभायमान है। आखिर कैसे, कब और क्यों इन रिवाजों ने अनिवार्य से ऐच्छिक चोला पहन लिया। चाहें जिस रूप में हो,लेकिन हैं आज भी अनुकरणीय।
और रिवाजों के स्वरूप परिवर्तन के पीछे हमारी पीढ़ी दर पीढ़ी परिवर्तित हो रही जीवन शैली एक प्रमुख कारण है। क्योंकि जिस रफ्तार से समय के साथ हमारी जीवन शैली बदल रही है। उस हिसाब से हम संयुक्त परिवारों से एकल परिवारों में बदल रहे हैं। व्यवहार सीमित होता जा रहा है। सीमित विचारधारा इसे आज पुराने लोगों के द्वारा थोपी गई बंदिश मानती है।
लेकिन सही मायने में रीति रिवाज इस व्यस्त जीवन में हमें अपनों की याद दिलाते हैं। इस समयाभाव भरी दिनचर्या में हमें एक दूसरे के करीब लाते हैं। आधुनिकता की भागदौड़ से भरे जीवन में अपनों के साथ कुछ खुशी के पल और होठों पर मीठी मुस्कान लाते हैं। हमें रिश्तो के मायने याद दिलाते हैं। अपनों के सुख - दुख में उनके साथ होने का एहसास दिलाते हैं। जरूरतों को पूरा करने की प्रतिस्पर्धा में कुछ पल सुकून के लाते हैं। तो मेरे अनुसार तो रीति-रिवाजों को अवश्य मानना चाहिए। यदि हो सके तो सामर्थ्य अनुसार इन रिवाजों की गरिमा को भी बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए।
धन्यवाद
हेमा आर्या "शिल्पी"

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