मन का पाखी

बिना पंखों का पाखी  (मन )



bina pankhon ka pakhi, mera mann
पंख  पसार दूर गगन में ,
ऊँची उड़ान भरते है पंछी।      
                                                   
मेरा पाखी बिन पंखो का ,
बिन तन का ;यह मन का पंछी।  



bina pankhon ka pakh, hariyali men mera mannमेरे मन का यह पाखी ,
वायु गति से बहता रहता। 
छूकर प्रकृति के कण -कण को ,
हृदय में मेरे भाव जगाता। 
शब्दों से सजाता  हर पल -छिन को ,
बिना पंख का मेरा पाखी। 



bina pankho ka pakhi, os ki boodon men mera mannरश्मि संग मिलकर जब ये ,
मखमली घास को छूता  हैं। 
देख चमकती ओंस की बूंदो को , 
कवि सृजन कर देता हैं।  
ओंस की बूंदो से हम गुदगुदाता ,
बिना पंख का मेरा पाखी।  



bina pankhon ka pakhi, stabdh nisha me mera mannघोर अँधियारी काली रात में जब ,
मुग्धा के संग हिलमिल जाता। 
तम में भी मन यूं विचरण करता हैं  ,
हृदय हमारा खिलखिल जाता। 
स्तब्ध निशा से बाते करता ,
बिना पंख का मेरा पाखी। 


bina pankhon ka pakhi, lahron men mera mannदेख समंदर की लहरों को ,
बनकर मीन ये गोता खाता।  
उठती -गिरती लहरों के संग ,
 गहरायी का अर्थ बताता।  
ढूंढ के लाता शब्दों के मोती ,
बिना पंख का मेरा पाखी। 



bina pankho ka pakhi, dharti se ambar tk mera mannइस धरती से उस अम्बर तक ,
विशाल संसृति में विचरण करता। 
मुझको बंद पलकों से भी ये ,
मूर्त -अमूर्त के भाव दिखाता।  
भाव -लोक में विहार कराता है ,
बिना पंखों का मेरा पाखी।  










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