बहुमुखी प्रतिभा के धनी एवं काव्य धारा के विशिष्ट कवि गिरिजाकुमार माथुर ने बौद्धिकता और संवेदनशीलता के कारण ही अपनी एक विशेष पहचान स्थापित की है। माथुर जी एक सतही कवि थे।वे मात्र कोरी भावुकता से युक्त ना होकर वर्तमान की वैज्ञानिक उपलब्धियों और सांस्कृतिक परंपरा, जीवन के दुख - दर्द, हर्ष, उल्लास के अनुभवों से सौंदर्य के स्वाभाविक से संपन्न कवि थे।
जीवन परिचय
गिरिजाकुमार माथुर जी का जन्म 22 अगस्त 1919 को मध्य प्रदेश के एक कस्बे अशोक नगर में हुआ था। इनके पिता का नाम देवी चरण माथुर था। तथा माता का नाम लक्ष्मी देवी था। माथुर जी के पिताजी अध्यापक थे। तथा बड़े ही सरल स्वभाव के थे। उनके पिताजी को साहित्य और संगीत में रुचि थी।वे सितार बजाने में प्रवीण थे। तथा कविता भी लिखा करते थे। माथुर जी के पिताजी ने इनकी प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही की। इनके पिता जी ने इन्हें अंग्रेजी, इतिहास, भूगोल आदि की शिक्षा घर पर ही दी। माथुर जी के पिताजी की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ नहीं थी। लेकिन फिर भी अपने पुत्र के शैक्षिक विकास के लिए उन्होंने उचित व्यवस्था की। तथा सन् 1934 में इन्होंने राजकीय इंटरमीडिएट कॉलेज झांसी से हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। और सन् 1938 में विक्टोरिया कॉलेज ग्वालियर से बी ए की परीक्षा पास की। गिरिजा कुमार माथुर जी ने 1941 में लखनऊ विश्वविद्यालय से परास्नातक की उपाधि प्राप्त करने के पश्चात एल एल बी किया। तथा झांसी में ही वकालत को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। लेकिन वकालत में इन्हें सफलता नहीं मिली। वकालत में असफल होने के बाद वे दिल्ली अपने ससुराल चले गए। बहुत दिनों तक संघर्ष करने के बाद ऑल इंडिया रेडियो में इनकी नियुक्ति हो गई। ऑल इंडिया रेडियो में कार्यरत रहते हुए माथुर जी केंद्र निदेशक के पद पर प्रतिष्ठित हुए।
अत्यंत संघर्षमय जीवन व्यतीत करने के बाद भी माथुर जी दृढ़ता पूर्वक अपनी समस्त समस्याओं का निवारण करते हुए जीवन पथ पर आगे बढ़ते रहे। इनके जीवन की समस्त दिशाएं, समस्त सफलताएं स्वनिर्मित थी। इनके के संदर्भ में लेखक "श्री कैलाश बाजपेयी" जी ने लिखा भी है कि गिरिजाकुमार ने इंच - इंच कर अपना रास्ता बनाया, पांच-पांच रुपए तक के प्रोग्राम किए। तथा जीवन के सफर में संघर्ष से सफलता तक का रास्ता तय करते हुए गिरिजाकुमार माथुर जी का 10 जनवरी सन् 1994 को नई दिल्ली में देहांत हो गया।
लेखन कार्य व रचना
गिरिजाकुमार माथुर जी की काव्य यात्रा की शुरुआत सन् 1934 में ब्रजभाषा के कवित्त, सवैया लेखन से हुई। उनका पहला काव्य संग्रह "मंजीर" सन् 1941 में प्रकाशित हुआ। जिसकी भूमिका माथुर जी ने "निराला जी" से लिखवाई। वास्तव में माथुर जी द्वितीय विश्वयुद्ध से अधिक प्रभावित हुए। और इस विश्व युद्ध की घटनाओं से उत्पन्न प्रतिक्रियाओं के प्रभाव से ही उनकी रचना प्रारंभ हुई। सन् 1943 के अज्ञेय जी द्वारा संपादित व प्रकाशित "तारसप्तक" के सात कवियों में एक गिरिजाकुमार माथुर जी भी थे। माथुर जी 'भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद' की साप्ताहिक पत्रिका "गगनांचल" का संपादन भी किया। तथा साथ ही उन्होंने कविता के अतिरिक्त एकांकी, नाटक, कहानी, आलोचना,गीतिकाव्य तथा शास्त्रीय विषयों पर भी लिखा है। गिरिजाकुमार माथुर रचित "हम होंगे कामयाब" समूहगीत अत्यंत लोकप्रिय है। प्रारंभ में माथुर जी ने ब्रज भाषा में लेखन कार्य शुरू किया तथा बाद में कवित्त, सवैया लिखें और फिर धीरे-धीरे माथुर जी ने खड़ी बोली में भी रचनाएं की।
रचनाएं
माथुर जी की प्रमुख रचनाएं हैं -
मंजीर,
नाश और निर्माण
धूप के धान
शिलालेख के पंख चमकीले
जो ,
बँध नहीं सका
भीतरी नदी की यात्रा
साक्षी रहे वर्तमान
कल्पांतर
मैं वक्त के सामने हूं
छाया मत छूना
नई कविता सीमाएं और संभावनाए
मुझे और अभी कहना है
पृथ्वीकल्प
जन्म कैद आदि।
सम्मान और पुरस्कार
गिरिजाकुमार माथुर जी को 1919 में कविता संग्रह "मैं वक्त के सामने हूं" के लिए हिंदी का "साहित्य अकादमी पुरस्कार" तथा 1993 में "के. के. बिरला फाउंडेशन" द्वारा दिया जाने वाला प्रतिष्ठित "व्यास सम्मान" और "शलाका" सम्मान से सम्मानित किया गया।
काव्यगत विशेषताएं
माथुर जी की कविता में रंग, रस रूप, भाव तथा शिल्प के अद्भुत प्रयोग देखने को मिलते हैं। उनके लेखन में हमें जीवन के प्रति आसक्ति, जिज्ञासा और रागात्मता के दर्शन भी होते हैं। माथुर जी की कविताओं में मानवीयता का उद्घोष दिखाई देता है। इनके लेखन में सौंदर्य पिपासा, एकांकी, प्रेमविषयक स्मृतियां, अनुभव, संवेदना है। माथुर जी की रचनाओं में तत्कालीन परिवेश का द्वंद, तनाव व परिवर्तन की छाप स्पष्ट रूप से दृष्टव्य होती है। माथुर जी की रचनाएं धरातल से जुड़ी होती हैं। इसी कारण वे सामाजिक परिवेश के प्रश्न पूछने का साहस रखते हैं।
भाषागत विशेषताएं
माथुर जी की भाषा ब्रज भाषा रही है। उन्होंने खड़ी बोली में भी काम किया है। माथुर जी ने अपनी भाषा में ध्वनि बिंबों का प्रयोग किया है। भाषा के नए - नए प्रयोग करने के बाद भी उनके वाक्य बोझिल नहीं होते हैं। कविता अतुकान्त होने के बाद भी संगीतात्मक होती है। रोमानी कविताओं में छोटे-छोटे ध्वनि वाले शब्द तथा शास्त्रीय रचनाओं में लंबी - लंबी और गंभीर ध्वनि वाले शब्दों का स्वाभाविक प्रयोग उनकी प्रमुख भाषागत विशेषता रही है। वह चित्र को अधिक स्पष्ट करने के लिए चित्र में भावात्मक रंग भरते हैं। इनकी भाषा शैली भावात्मक, चित्रात्मक, संगीतात्मक है। कवि गिरिजाकुमार माथुर विषय की मौलिकता प्रस्तुत करने के पक्षधर थे।


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