सागर की उर्मि (भाग - 3 )

                                                                     ( 3 ) 

उर्मि अपने निर्णय पर खुश थी ,आखिर वह अपने दोस्त की मदद करने जा रही थी। खुश होने के साथ - साथ वह व्याकुल भी थी, सुबह के इन्तजार में। अगले दिन सुबह होते ही उर्मि जल्दी -जल्दी में फूल चुनती हैं, और फिर मंदिर में फूल देते हुए फटाफट स्कूल को चली जाती हैं। रास्ते में उसे सागर मिलता हैं। सागर आज भी कल की ही तरह उदास था,पर उर्मि के चेहरे पर ख़ुशी और संशय का मिश्रित भाव था। उर्मि चलते - चलते सागर से पूछती हैं। 

उर्मि  -  कैसा हैं तू, बाबा से बात की तूने। 

सागर  - नहीं, बाबा की परेशानियां और उनको इतना कठिन परिश्रम करते देखता हूँ तो फिर कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं होती। उर्मि सोच रहा हूँ, कि आज विद्यालय जाकर अपना नाम वापस ले लूँ। 

( उर्मि सागर का हाथ पकड़ते हुए उसे रुकने के लिए कहती हैं )

उर्मि  - सागर सुन मुझे तुझसे कुछ कहना हैं। 

सागर  -  क्या ?जल्दी चल देर हो रही हैं। 

उर्मि  - अरे सुन तो, मैं तेरे लिए कुछ लाई हूँ। 

सागर  -  मेरे लिए, क्या लाई हैं ?

उर्मि  -  मैं तेरे लिए परीक्षा की तैयारी के लिए किताब लाई हूँ ,यह ले; देख यहीं हैं ना।  

सागर  - ये क्या उर्मि; तू किताब लाई हैं पर कैसे और कहाँ से ?क्या काका ने मेरी मदद की हैं। 

उर्मि  -  नहीं , बाबा को तो मैंने बताया ही नहीं। 

सागर  - फिर ये किताब तू कहाँ से लाई ?

उर्मि  -  सागर बाबा कभी - कभी मुझे जेब - खर्च के लिए पैसे देते हैं।  मैं उन्हें अपने पास जमा कर लेती हूँ। ये किताब मैं उन्हीं  पैसों से लाई हूँ। देख अब तू इसे लेने से इंकार मत करना। तू जानता हैं ना ,कि तू मेरा सबसे अच्छा दोस्त हैं। अभी तू किताब लेकर अपनी परीक्षा की तैयारी कर। और अब चल नहीं तो स्कूल पहुँच कर दोनों को सजा मिलेगी। 

(फिर दोनों स्कूल की ओर चल पड़ते हैं )

सागर  -  उर्मि बता मैं तुझे धन्यवाद कैसे कहूँ। 

उर्मि  -  पता हैं सागर मेरे बाबा हमेशा कहते हैं ,कि तू चलकर आगे बहुत बड़ा आदमी बनेगा। तब अगर कभी मुझे कोई मुश्किल आएगी तो तू मेरी मदद कर देना। 

सागर  -  ठीक हैं,

(और वह किताब रख लेता हैं। और दोनों मुस्कुराने लगते हैं। )

 पुजारी जी अधिकांश सागर के बारहवीं के बाद की उच्च शिक्षा के विषय में चिंतित रहते। और दूसरी तरफ सागर अपने पिता को परेशान देख व्याकुल रहता। समय तेजी से व्यतीत हो रहा था। और सागर समय के साथ बस एक सपना देखा करता था। कि एक दिन पढ़ - लिखकर वह बहुत बड़ा अफसर बनेगा और अपने पिता की सारी समस्याएं समाप्त कर जीवन का हर सुख प्रदान करेगा। और सागर के इन सारे सपनों की साक्षी उर्मि थी। जो सदैव उसे प्रोत्साहित किया करती थी। अब दोनों बड़े हो चुके थे,और बारहवीं कक्षा के अंतिम पड़ाव पर थे ,दोनों की दोस्ती बचपने से निकल कर कहीं ना कहीं भावनाओं की लहरों में बहने लगी थी। जब भी सागर उर्मि से अपने सपनों के बारे में बात करता,तो उर्मि जवाब में सिर्फ एक ही सवाल करती। 

उर्मि  -  सागर जब तू शहर जाकर बड़ा अफसर बन जायेगा,तो क्या मुझे भूल जायेगा और फिर कभी गाँव लौटकर नहीं आएगा। 

(सागर  उर्मि की ओर देखकर व मुस्कुराकर कहता हैं  ) 

सागर  - हाँ शायद, इस गाँव को भूल जाऊँ। लेकिन अपनी इस दोस्त को और हमारी इस दोस्ती के लिए जरूर लौटकर आऊॅंगा। और देखना एक दिन तुम्हें भी अपने साथ लेकर जाऊंगा। 

और फिर दोनों हँस पड़ते। और वक़्त अपनी रफ़्तार से चलता रहा। और दोनों की बारहवीं की पढाई पूरी हो गयी। सागर को शत  - प्रतिशत अंकों से उत्तीर्ण होते देख पुजारी जी ने निश्चय किया कि अब वे किसी की सहायता लेकर उसकी आगे की पढाई शहर में करवाएंगे। और फिर अपनी सारी जमा - पूँजी लगाते हुए अपने किसी रिश्तेदार की सहायता से पुजारी जी सपरिवार बैंगलोर में जा बसे। जाने से पहले सागर और उर्मि उसी मन्दिर के पीछे वाले झरने ,जहाँ वे दोनों अक्सर बैठकर बातें किया करते थे , वही आखिरी बार मिलें। ..... 

                                                                                   to be continue............................


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