दृष्टिकोण
हर किसी का अपना एक अलग दृष्टिकोण होता हैं। एक ही विषय पर लोगों का भिन्न -भिन्न मत होता हैं ,अलग - अलग राय होती हैं। मैं यहाँ ये नहीं कहती कि किस विषय में किसका क्या विचार होना चाहिए। और क्यों होना चाहिए। मेरा मानना तो बस इतना हैं कि स्थिति -परिस्थिति चाहें कैसी भी क्यों न हों ,हमारा दृष्टिकोण सदैव वर्तमान काल के साथ सामंजस्य स्थापित करने वाला होना चाहिए। हमारा दृष्टिकोण सदैव सकारात्मक होना चाहिए। क्योंकि सकारात्मक दृष्टिकोण हमारे वर्तमान को उज्जवल भविष्य की ओर ले जाता हैं। सकारात्मक दृष्टिकोण को अपने व्यवहार में शामिल करने के लिए कई बार हमे नकारात्मक दृष्टिकोण पर भी गहन विचार करना चाहिए। क्योंकि जब तक हमें नकारात्मक दृष्टिकोण के दुष्परिणामों का ज्ञान नहीं होगा , तब तक हमारे व्यवहार में सकारात्मक दृष्टिकोण का विस्तार भी नहीं होगा। क्योंकि जब तक हमें ये अनुभव नहीं होगा कि नकारात्मकता हमें सदैव अवनति की ओर तथा सकारात्मकता हमें उन्नति कि ओर अग्रसर करेंगी। तब तक हमारे भीतर स्वस्थ दृष्टिकोण का जन्म नहीं हो सकता।
दृष्टिकोण का अपना एक अलग ही महत्त्व हैं। हालांकि दृष्टिकोण को लेकर लोगों में कुछ पूर्वकालिक धारणाएं भी होती हैं। परन्तु मेरे मतानुसार मनुष्य का दृष्टिकोण सदैव परिस्थिति के अनुकूल परिवर्तनशील होना चाहिए। क्योंकि अलग -अलग स्थितियों को एक ही दृष्टिकोण से नहीं देखा जा सकता हैं। हमें हमारी सोच को स्थितिनुसार बदलना ही चाहिए। और इसका मुख्य कारण हैं परिवर्तित समय ,जैसे -जैसे समय बदल रहा हैं। हमें हमारे दृष्टिकोण में भी सहजता और सरलता का समावेश करना चाहिए। एक कठोर दृष्टिकोण के साथ हम समाज और समय दोनों के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं कर सकते। दृष्टिकोण में आमूल -चूल परिवर्तन स्वीकार्य होने ही चाहिए। क्योंकि ये हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं ,साथ ही प्रगति के सुअवसर भी प्रदान करते हैं। और वही दूसरी ओर हमारा अपरिवर्तनशील और परिचयात्मक दृष्टिकोण हमें समाज से अलग कर देता हैं। और हमारी एक अलग से पहचान बना देता हैं। जो कि हमें व्यावहारिक सामंजस्य स्थापित करने में समस्या उत्पन्न करता हैं। वो हमें एक ऐसा ठूंठ वृक्ष बना देता हैं। जिसे कि जब तक काटा न जाएँ ,वो वहां पर नवकोंपल पल्लवित नहीं होने देता। इसीलिए मैं हमेशा कहती हूँ, कि दृष्टिकोण सदा सकारात्मक , सरल व सहज होना चाहिए।
वहीं मेरे दृष्टिकोण का दूसरा पहलू ये भी हैं। कि दृष्टिकोण इतना सरल व परिवर्तनशील भी नहीं होना चाहिए। कि उसका अपना अस्तित्व ही समाप्त हो जाएँ। और कोई भी अन्य का दृष्टिकोण तुम्हारे दृष्टिकोण पर प्रभावी होकर तुम्हारे दृष्टिकोण को दिशाविहीन बना दें । और तुम अपना मत सामने भी रख ना पाओ। तुम्हारा अपना एक स्वतंत्र दृष्टिकोण अवश्य होना चाहिए। जो तुम्हारे स्वछन्द विचारों का परिचायक हो तथा साथ ही तुम्हें समाज में प्रतिष्ठित करता हों। जो किसी से भी प्रभावित ना हों।
वहीं मेरे दृष्टिकोण का दूसरा पहलू ये भी हैं। कि दृष्टिकोण इतना सरल व परिवर्तनशील भी नहीं होना चाहिए। कि उसका अपना अस्तित्व ही समाप्त हो जाएँ। और कोई भी अन्य का दृष्टिकोण तुम्हारे दृष्टिकोण पर प्रभावी होकर तुम्हारे दृष्टिकोण को दिशाविहीन बना दें । और तुम अपना मत सामने भी रख ना पाओ। तुम्हारा अपना एक स्वतंत्र दृष्टिकोण अवश्य होना चाहिए। जो तुम्हारे स्वछन्द विचारों का परिचायक हो तथा साथ ही तुम्हें समाज में प्रतिष्ठित करता हों। जो किसी से भी प्रभावित ना हों।
जो अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखता हों। वो तुम्हारा अपना दृष्टिकोण ही होता हैं। जो तुम्हें तुम्हारे लक्ष्य से परिचित करता हैं। तुम्हें सही मार्ग की ओर ले जाता हैं। दृष्टिकोण वास्तव में तुम्हारे व्यवहार का, समझ का , विचारों का एक उजला दर्पण होता हैं। जो दूसरों की दृष्टि में तुम्हारी व्यक्तिगत छवि अंकित करता हैं। दृष्टिकोण सकारात्मक होना चाहिए; नकारात्मक नहीं, समय ,काल स्थितिनुकूल होना चाहिए; परम्परावादी नहीं ,धनात्मक होना चाहिए ; ऋणात्मक नहीं ,उन्नति -प्रिय होना चाहिए ;अवनति उन्मुख नहीं। दृष्टिकोण ज़िन्दगी को देखने का एक नजरिया है। जो बहुत खूबसूरत होना चाहिए ;तभी तो ज़िन्दगी भी खूबसूरत नज़र आएगी। मेरा दृष्टिकोण तो यही है।
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