प्रातः काल सूर्य उदय हुआ जब,
किरणों ने अपनी आँखें खोली।
देख धरा का यह अनुपम सौन्दर्य,
किरणें आ धरती पर ओंस से बोली।
किस प्रयोजन से तेरा आगमन हुआ धरा पर,
कैसे सारी रात तू बिन बिखरें यूँ ही ठहर गयी।
क्या तिनके तू तनिक भी हिला नहीं,
जो ओंस नभ से गिर तेरे शीश पर संभल गयी।
ओंस बोली सुन ऐ रवि - रश्मि,
मैं तिनके के अनुराग में सब कुछ भूल गई।
छोड़ कर नभ की ऊँचाइयों का अनंत सुख मैं,
प्रेम - तृष्णा में धरा की गहराई में खोने आ गई।
तभी तिनका बोला सूर्य किरण से,
मैं प्रतिपल धरती की शोभा बढ़ाता हूँ।
मैं क्यूँ सदा पग प्रहार से कुचला जाऊँ,
मैं भी तो किसी निःस्वार्थ प्रेम चाहता हूँ।
ओंस मेरे अनुराग में आयी,
मेरी प्रेम - पिपासा पूर्ण हुई।
ये आस मेरी आ गयी,इसके विश्वास ने इसको थाम लिया।
आस - विश्वास के इस अनुराग में सारी रैना बीत गई।
भोर भई ज्यौं ही तुम चमकी,
धरा का कोना - कोना निखर गया।
देख हम दोनों के मधुर संयोग से,
धरा का कण - कण कैसे सँवर गया।
रश्मि बोली ओंस तिनके का संगम तो,
धरा का अद्भुत सौन्दर्य बनेगा।
ओंस का तिनके पर यूँ जीवन खोना,
काव्य के लिए प्रेम का प्रतीक बनेगा।

0 Comments