मन वृंदावन हो गया


मन की वीणा में कान्हा तेरे गीत है, 
जाने दुनिया तू राधा का मन मीत है।
फिर भी तुझ से बंधी प्रेम की डोर है,
क्योंकि तुझ से शुरू प्रेम की रीत है।

ना मैं मीरा न राधा मेरे श्याम की, 
मैं दीवानी हूं कान्हा तेरे नाम की।
मेरी आंखों में तेरी छवि बस गई, 
ना सुबह का पता ना खबर शाम की।

पा के पावन चरण रज तेरे धाम की,
तेरी भक्ति में खो के मगन हो गई। 
बस गए तुम कन्हैया मेरे मन में यूं, 
सच कहूं मन से मैं वृंदावन हो गई।

तुझको मन में बसा कब दरस पाऊंगी,
मीरा बनना भी चाहूं न बन पाऊंगी। 
मेरी भक्ति को रहने दे मृग तृष्णा सी,
तुझको पाकर मैं तुझको ना खो पाऊंगी। 

तेरे चरणों में कान्हा शरण दे मुझे, 
फूल बनना न चाहूं शिला कर मुझे।
फूलों चरणों से एक दिन बिछड़ जाएंगे, 
रख बनाकर शिला तेरे दर पर मुझे।

प्रीत में प्राप्ति प्रीत की रीत है, 
प्रेम में हार क्या और क्या जीत है।  
मैं ना चाहूं वो तृप्ति जहां मोक्ष हो, 
मेरी तृष्णा की तृप्ति विरह गीत है।

वृंदावन आ के देखी जो लीला तेरी,
मुझमें मैं अब नहीं हो गई मैं तेरी।
प्रेम भक्ति की लीला में यूं खो गई,
शिल्पी कहती फिरे मैं हूं बिरहन तेरी।










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