जीवन परिचय
हिंदी और उर्दू के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार, कहानीकार एवं विचारक प्रेमचंद जी का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी जिले ( उत्तर प्रदेश ) के लमही नामक गांव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। प्रेमचंद जी की माता जी का नाम आनंदी देवी तथा पिताजी का नाम मुंशी अजायबराय था। प्रेमचंद जी के पिताजी लमही ग्राम में डाक मुंशी थे। प्रेमचंद जी का वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। प्रेमचंद जी के माता- पिता के विषय में बताते हुए "रामविलास शर्मा जी" ने लिखा है कि जब प्रेमचंद जी मात्र 7 वर्ष के थे; तभी उनकी माता जी का देहांत हो गया था। और जब प्रेमचंद जी पंद्रह वर्ष के हुए तब उनका विवाह कर दिया गया। और विवाह के एक वर्ष पश्चात् जब वे मात्र सोलह वर्ष के थे, तो उनके पिताजी मुंशी अजायबराय जी भी स्वर्गवासी हो गए। अल्पायु में ही माता पिता का निधन हो जाने के बाद प्रेमचंद जी का प्रारंभिक जीवन अति संघर्षमय रहा।
प्रेमचंद जी के साहित्यिक सफर व लेखन विषय की पुष्टि करते हुए "रामविलास शर्मा जी" लिखते हैं कि सौतेली मां का व्यवहार, बचपन की शादी, पण्डे - पुरोहित का कर्मकांड, किसान और क्लर्कों का दुखी जीवन यह सब प्रेमचंद जी ने सोलह वर्ष की आयु में ही देख लिया था। जीवन की इन सभी परिस्थितियों का और सच्चाई का अनुभव प्रेमचंद जी को मात्र सोलह वर्ष की आयु में ही हो गया था। और इन्हीं अनुभवों की एक झलक उनके कथा साहित्य में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। प्रेमचंद जी की बचपन से ही पढ़ने - लिखने में रुचि थी। इसलिए उन्होंने मात्र 13 वर्ष की उम्र में ही तिलिस्म - ए - होशरुबा पढ़ लिया था। और उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ "शरसार", मिर्जा हादी रुस्वा तथा मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया था। और इसके बाद मात्र पंद्रह वर्ष की आयु में ही प्रेमचंद जी का पहला विवाह हो गया था। इसके बाद 1906 में प्रेमचंद जी का दूसरा विवाह शिवरानी देवी हुआ। कहा जाता है कि वह एक बाल विधवा थी। शिवरानी देवी एक सुशिक्षित महिला थी। जिन्होंने कुछ कहानियां तथा "प्रेमचंद घर में" नामक शीर्षक से एक पुस्तक लिखी। प्रेमचंद और शिवरानी देवी की तीन संताने थी। श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी श्रीवास्तव। आगे चलकर प्रेमचंद जी मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हुए। लेकिन इसके बाद भी प्रेमचंद जी ने अपनी पढ़ाई नहीं छोड़ी। और नौकरी के साथ-साथ अपनी पढ़ाई भी जारी रखी। प्रेमचंद जी की पढ़ाई के संदर्भ में "रामविलास शर्मा जी" लिखते हैं कि सन् 1910 में अंग्रेजी,दर्शन,फारसी और इतिहास लेकर इण्टर किया। और 1919 में अंग्रेजी, फारसी और इतिहास लेकर बी. ए. किया। 1919 में बी. ए.पास करने के बाद प्रेमचंद जी शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए।
1921 में असहयोग आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी जी द्वारा सरकारी नौकरी छोड़ने का आहवाह्न करने पर प्रेमचंद जी ने 23 जून को इंस्पेक्टर पद से अपना त्यागपत्र दे दिया। और इन सब के बाद प्रेमचंद जी ने लेखन कार्य प्रारंभ किया। लेखन को ही अपना व्यवसाय बना लिया। इसी दौरान मर्यादा, माधुरी आदि पत्रिकाओं के संपादक पद पर कार्यरत रहे। और इसी बीच प्रेमचंद जी ने प्रवासी लाल जी के साथ मिलकर सरस्वती प्रेस खरीदा। फिर हंस और जागरण निकाला। उन्हें व्यावसायिक सफलता प्राप्त नहीं हुई।और उन्हें आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा। तत्पश्चात् 1933 में अपना ऋण चुकाने के लिए उन्होंने मोहनलाल भवनानी के सिनेटोन कंपनी में एक कहानी लेखक के रूप में कार्य किया। किन्तु फिल्म नगरी प्रेमचंद जी को रास नहीं आई। और वे 1 वर्ष का अनुबंध पूर्ण ना कर सके, और अपना दो माह का वेतन छोड़कर बनारस लौट आए। और धीरे-धीरे प्रेमचंद जी का स्वास्थ्य लगातार बिगड़ता गया, तथा लंबी बीमारी के बाद 8 अक्टूबर 1936 को उनका देहांत हो गया।
साहित्यिक परिचय
प्रेमचंद जी के साहित्यिक जीवन का आरंभ 1901 से हो गया था। शुरुआत में प्रेमचंद जी "नवाब राय" के नाम से उर्दू भाषा में लिखा करते थे। प्रेमचंद जी की प्रथम रचना के विषय में "रामविलास शर्मा जी" ने लिखा है कि प्रेमचंद जी की पहली रचना जो कि अप्रकाशित ही रही, शायद उनका वह नाटक था। जो उन्होंने अपने मामा जी के प्रेम और उस प्रेम के फलस्वरूप चमारों द्वारा उनकी पिटाई पर लिखा था। इसका जिक्र उन्होंने "पहली रचना" नाम के अपने लेख में किया है।
और जो उनका पहला उपलब्ध उपन्यास है। वह उर्दू भाषा में लिखा गया है। जिसका नाम "असरारे मआबिद" है। जो कि एक धारावाहिक के रूप में प्रकाशित हुआ। प्रेमचंद जी द्वारा रचित उर्दू उपन्यास का हिंदी रूपांतरण "देवस्थान रहस्य" नाम से हुआ। प्रेमचंद जी का दूसरा उपन्यास "हमखुर्मा व हम सवाब" है। जो कि उर्दू उपन्यास हैं। जिस का हिंदी रूपांतरण 1907 में "प्रेमा" नाम से किया गया। यह एक प्रकाशित उपन्यास है। इसी प्रकार 1908 में प्रेमचंद जी का पहला कहानी संग्रह "सोज़े - वतन" नाम से प्रकाशित हुआ। यह कहानी संग्रह देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत है। जिस कारण अंग्रेज सरकार ने इस कहानी संग्रह पर प्रतिबंध लगा दिया था। यहां तक कि उनकी सारी प्रतियां भी जब्त कर ली गई थी। और नवाबराय अर्थात् प्रेमचन्द जी को आगे कभी न लिखने की चेतावनी भी दी गई थी। लेकिन प्रेमचंद जी की कलम कहां रुकने वाली थी। उन्होंने लेखन के लिए अपना नाम नवाबराय से बदलकर प्रेमचंद कर लिया। और प्रेमचंद नाम से लिखना शुरु किया। उनका प्रेमचंद नाम "दया नारायन निगम" ने रखा था। और प्रेमचंद नाम से उनकी पहली रचना एक कहानी थी। जिसका प्रकाशन 1910 हुआ था। जिसका नाम "बड़े घर की बेटी" था। जो कि "जमाना" नामक पत्रिका में दिसंबर के अंक में प्रकाशित हिंदी मासिक पत्रिका के माह दिसंबर अंक में प्रकाशित हुई। 1914 की प्रसिद्ध हिंदी मासिक पत्रिका सरस्वती के दिसंबर अंक में प्रेमचंद जी की पहली कहानी "सौत" प्रकाशित हुई। 1918 में उनका पहला हिंदी उपन्यास "सेवासदन" प्रकाशित हुआ। हिंदी उपन्यास सेवासदन इतना अधिक लोकप्रिय हुआ। कि इस उपन्यास को लोकप्रियता मिलते ही प्रेमचंद जी उर्दू से सीधा हिन्दी कथाकार बन गए। प्रेमचंद जी की सभी रचनाएं हिंदी व उर्दू दोनों ही भाषाओं में प्रकाशित हुई। प्रेमचंद जी ने "मर्यादा" नामक पत्रिका का संपादन किया। इसके बाद 6 वर्षों तक हिन्दी पत्रिका "माधुरी" का संपादन किया ।तत्पश्चात् 1922 में प्रेमचंद जी ने "प्रेमाश्रम" उपन्यास प्रकाशित किया। तथा 1925 में उन्होंने "रंगभूमि" उपन्यास लिखा।जिसके लिए इन्हें "मंगला प्रसाद" पारितोषिक भी मिला।
1926 - 27 में महादेवी वर्मा द्वारा संपादित हिंदी मासिक पत्रिका चांद के लिए "निर्मला" की रचना की। इसके बाद 1930 में बनारस से अपना मासिक पत्रिका "हंस" का प्रकाशन किया। 1932 में प्रेमचंद जी ने साप्ताहिक पत्र 'जागरण' प्रकाशन शुरू किया। तत्पश्चात् लखनऊ में 1936 में अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ सम्मेलन की अध्यक्षता की। 1934 की प्रसिद्ध फिल्म "मजदूर" के कहानीकार भी प्रेमचंद जी हैं।
1920 से 1936 तक प्रेमचंद जी ने दस से अधिक कहानियां प्रतिवर्ष लिखी। मरणोपरांत प्रेमचंद जी की कहानियां "मानसरोवर" नाम से आठ खंडों में प्रकाशित हुई। उपन्यास कहानी इनके अतिरिक्त वैचारिक निबंध संपादकीय पत्र के रूप में भी उनका विपुल लेखन उपलब्ध है।
रचनाएं
प्रेमचंद जी एक उत्कृष्ट नाटककार, श्रेष्ठ कहानीकार, कुशल उपन्यासकार थे। प्रेमचंद जी ने साहित्य की लगभग सभी विधाओं पर कार्य किया और सभी विधाओं पर उनकी रचनाएं प्रसिद्ध हैं। जो कि इस प्रकार से हैं-
उपन्यास
सेवासदन
प्रेमाश्रम
निर्मला
कायाकल्प
रंगभूमि
कर्मभूमि
मंगलसूत्र
गबन
गोदान
कहानियां-
अंधेर
अनाथ लड़की
अपनी करनी
अमृत
अलग्योझा
आखिरी तोहफा
आखिरी मंजिल
आत्म संगीत
आत्माराम
दो बैलों की कथा
आल्हा
इज्जत का खून
इस्तीफा
ईदगाह
ईश्वरीय न्याय
उद्धार
एक आंच की कसर
एक्ट्रेस
कप्तान साहब
कर्मों का फल
क्रिकेट मैच
कवच
कातिल
कोई दुख ना हो तो बकरी खरीद ला
कौशल
खुदी
गैरत की कटार
गुल्ली डण्डा
घमण्ड का पुतला
ज्योति
जेल
जुलूस
झांकी
ठाकुर का कुआं
तेंतर
त्रिया - चरित्र
तांगेवाले की बड़
तिरसूल
दुर्गा का मंदिर
देवी
देवी -एक और कहानी
दूसरी शादी
दिल की रानी
दो सखियां
धिक्कार
धिक्कार- एक और कहानी
नेउर
नेकी
नबी का नीति निर्वाह
नरक का मार्ग
नैराश्य
नशा
नसीहतों का दफ्तर
नाग पूजा
नादान दोस्त
निर्वासन
पंच परमेश्वर
पत्नी से पति
पुत्र प्रेम
पैपुजी
प्रतिशोध
प्रेम - सूत्र
पर्वत यात्रा
प्रायश्चित
परीक्षा
पूस की रात
बैंक का दिवाला
बेटों वाली विधवा
बड़े घर की बेटी
बड़े बाबू
बड़े भाई साहब
बंद दरवाजा
बांका जमींदार
बोहनी
मैकू
मंत्र
मंदिर और मस्जिद
मनावन
मुबारक बीमारी
ममता
मां
माता का हृदय
मिलाप
मोटेराम जी शास्त्री
स्वर्ग की देवी
राजहठ
राष्ट्र का सेवक
लैला
वफा का खंजर
वासना की कड़ियां
विजय
विश्वास
शंखनाद
शूद्र
शराब की दुकान
शांति
शादी की वजह
स्त्री और पुरुष
स्वांग
सभ्यता का रहस्य
समय यात्रा
समस्या
सैलानी बंदर
स्वामिनी
सिर्फ एक आवाज
सोहाग का शव
सौत
होली की छुट्टी
नमक का दरोगा
गृह- दाह
सवा सेर गेहूं
दूध का दाग
मुक्तिधन
नाटक
संग्राम
कर्बला
प्रेम की बेदी
निबंध
पुराना जमाना नया जमाना
स्वराज के फायदे
कहानी कला
कौमी भाषा के विषय में कुछ विचार
हिंदी उर्दू की एकता
महामनी सभ्यता
उपन्यास
जीवन में साहित्य का स्थान
कहानी संग्रह
सप्त सरोज - (7 कहानियों का संग्रह है।)
नवनिधि - (9 कहानियों का संग्रह है।)
प्रेम पूर्णिमा
प्रेम पचीसी
प्रेम प्रतिभा
प्रेम द्वादशी
समर यात्रा
मानसरोवर
अनुवाद
उन्होंने अन्य दूसरी भाषाओं के लेखकों जिन्हें उन्होंने पढ़ा था। जिनसे वे प्रभावित हुए, उन लेखकों की कृतियों का अनुवाद किया।
जैसे- टाॅलस्टाॅय की कहानियां (1923) गाल्सवर्दी के तीन नाटकों का- हड़ताल (1930)
चांदी की डिबिया (1931) आदि नाम से अनुवाद किए हैं।
इनके अतिरिक्त रतननाथ सरशार के उर्दू उपन्यास "फसान-ए-आजाद" का हिंदी अनुवाद "आजाद कथा" नाम से किया।जो कि अपने समय में बहुत मशहूर हुआ था। कहानी नाटक उपन्यास अनुवाद के अतिरिक्त प्रेमचंद जी ने बाल साहित्य भी लिखा-
बाल साहित्य
राम कथा
कुत्ते की कहानी
दुर्गादास
काव्यगत विशेषताएं
प्रेमचंद जी की विशेषताओं को बताते हुए अपने एक साक्षात्कार में "मनु भंडारी जी" कहती हैं, कि साहित्य के प्रति और साहित्य के हर दृष्टि के प्रति चाहे राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक सभी को उन्होंने जिस तरह अपनी रचनाओं में समेटा और खास करके एक आम आदमी को, एक किसान को, एक आम दलित वर्ग के लोगों को, वह अपने आप में एक उदाहरण था। साहित्य में दलित विमर्श की शुरुआत शायद प्रेमचंद जी की रचनाओं से ही हुई थी। प्रेमचंद जी के साहित्य की वैचारिक यात्रा आदर्श से यथार्थ की ओर उन्मुख है। जहां एक और प्रेमचंद जी ने यथार्थवादी समस्याओं को चित्रित करते थे। वहीं दूसरी ओर उन तमाम समस्याओं का एक आदर्श समाधान भी निकालते थे। प्रेमचंद जी की विचारधारा को आदर्शोन्मुख कहा जा सकता है। प्रेमचंद जी स्वाधीनता संग्राम के सबसे बड़े कथाकार थे। इसलिए उन्हें हम राष्ट्रवादी लेखक भी कहते हैं। प्रेमचंद युग प्रवर्तक रचनाकार थे। उनकी रचनाओं में तत्कालीन इतिहास बोलता है। प्रेमचंद जी पहले लेखक थे, जिन्होंने अपने लेखन को कल्पनाओं से दूर वास्तविकता के धरातल पर स्थापित किया। प्रेमचंद जी ने अपनी रचनाओं में जन सामान्य की भावनाओं को, परिस्थितियों और उनके जीवन से जुड़ी घटनाओं को न सिर्फ स्थान दिया, उनका मार्मिक चित्रण भी किया। प्रेमचंद जी अपने युग के उन सिद्ध कलाकारों में थे। जिन्होंने हिन्दी को नवीन युग, आशा- आकांक्षाओं और अपेक्षाओं की अभिव्यक्ति का सफल माध्यम बनाया।
भाषा शैली
सर्वविदित है कि मुंशी प्रेमचंद जी उर्दू से हिंदी में आए थे। इसलिए प्रेमचंद जी की भाषा में उर्दू की चुस्त लोकोक्तियों और मुहावरों का सफल प्रयोग देखने को मिलता है। प्रेमचंद जी की भाषा शैली एकदम सटीक और साधारण थी। जो जनमानस के मन पर सीधी और गहरी छाप छोड़ती है। मुंशी प्रेमचंद जी की भाषा सहज, सरल, सुबोध, व्यवहारिक, स्वाभाविक, प्रभावपूर्ण, प्रभावशाली और मुहावरेदार है। प्रेमचंद जी की भाषा शैली में अद्भुत शक्ति योजना व व्यंजना शक्ति विद्यमान होती है। उनकी भाषा कथानक और पात्रों के अनुसार निरंतर परिवर्तित होती जाती है। प्रेमचंद जी की भाषा मर्मस्पर्शी होती है। इनकी भाषा शैली आकर्षक और मार्मिक होती है। वर्णनात्मक, व्यंग्यात्मक, भावात्मक, विवेचनात्मक, तथा चित्रात्मकता प्रेमचंद जी की भाषा शैली की विशेषताएं हैं। प्रेमचंद जी की भाषा में आवश्यकतानुसार अंग्रेजी, अरबी, उर्दू, फारसी और पूर्वी देशज भाषाओं के शब्दों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में देखने को मिलता है। भाषा की स्पष्टता और प्रभावशीलता प्रेमचंद जी के लेखन कौशल को सिद्ध करती है। प्रेमचंद जी ने अलंकारिक व काव्यात्मक भाषा का भी प्रयोग किया है। यदि हम यह कहें कि प्रेमचंद जी की भाषा जनसामान्य की भाषा है। तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। शायद तभी उनकी रचनाएं सीधे हृदय तल की गहराइयों में उतर कर अपना प्रभाव छोड़ती है।

0 Comments