जयशंकर प्रसाद जी हिंदी कवि, नाटककार, निबंधकार और श्रेष्ठ उपन्यासकार थे। हिन्दी के छायावादी युग के प्रमुख चार स्तंभों में से प्रसाद जी एक मुख्य स्तंभ थे। जयशंकर प्रसाद जी को छायावाद का प्रवर्तक कहा जाता है। क्योंकि जयशंकर प्रसाद जी हिंदी साहित्य के युगधारा को नवीन दिशा में देने में पूर्णत: सक्षम थे। उन्होंने साहित्य की जिस विधा को स्पर्श किया, वही धन्य हो गई। हिंदी साहित्य में नवयुग का द्वार प्रसाद जी नहीं खोला था। आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहास में कवि जयशंकर प्रसाद के कृतित्व का गौरव अक्षुण्ण है। वह एक युग प्रवर्तक लेखक थे।
जीवन परिचय
जयशंकर प्रसाद जी का जन्म 30 जनवरी सन् 1889 ई० में काशी के एक संपन्न वैश्य परिवार में हुआ था। इनके पितामह का नाम बाबू शिव रतन साहू था। तथा पिता का नाम बाबू देवी प्रसाद था। इनके पितामह वाराणसी के अत्यंत प्रतिष्ठित नागरिक थे। और एक विशेष प्रकार का तंबाकू बनाने के कारण 'सुंघनी साहू' के नाम से विख्यात थे। वह अपने दानशील व्यवहार के लिए जाने जाते थे। तथा इनके पिता बाबू देवी प्रसाद जी कलाकारों का बड़ा ही आदर करते थे। और वह कलाकारों का आदर करने के लिए विख्यात है। इनका काशी में बड़ा सम्मान था। प्रसाद जी के बाल्यकाल में ही उनके पिता तथा कुछ समय पश्चात् उनके भाई शंभुरत्न का देहांत हो गया। इसके बाद बड़े ही लाड़ - प्यार से पले प्रसाद जी को अल्पायु से ही घर की सारी जिम्मेदारियों का वहन करना पड़ा।
प्रसाद जी की प्रारंभिक शिक्षा काशी के क्वींस कॉलेज में हुई।क्वींस कॉलेज में वह मात्र सातवीं कक्षा तक ही पढ़ पाएं। उसके बाद आगे की शिक्षा का प्रबंध घर पर ही किया गया। जहां उन्होंने हिंदी और संस्कृत की शिक्षा ग्रहण की। घर के वातावरण के कारण साहित्य और कला में प्रसाद जी की रुचि प्रारंभ से ही थी। ऐसा कहा जाता है, कि 9 वर्ष की आयु में ही प्रसाद जी ने "कलाधर" के नाम से ब्रज भाषा में एक सवैया लिखकर अपने "रसमय सिद्ध" को दिखाया।रसमय सिद्ध इनके प्रारंभिक शिक्षक थे। रसमय सिद्धि इनका उपनाम था। वास्तविक नाम श्री मोहिनी लाल गुप्त था। जो कि एक कवि थे।
जयशंकर प्रसाद जी ने वेद, इतिहास, पुराण व साहित्य शास्त्र का अत्यंत गहन अध्ययन किया था। वह पाक कला और बाग - बगीचे, बागवानी आदि में भी रूचि रखते थे। वे नियमित व्यायाम करने वाले सात्विक भोजन करने वाले गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे। वे नागरी प्रचारिणी सभा के उपाध्यक्ष भी रहे। परंतु एक समय पश्चात वे छय रोग से पीड़ित हो गए और 15 नवंबर 1937 को प्रातः काल मात्र 48 वर्ष की आयु में ही उनका निधन हो गया।
साहित्यिक अवदान
जयशंकर प्रसाद जी को छायावाद का प्रवर्तक कहा जाता है। प्रसाद जी द्वारा ही रचित खड़ी बोली के काव्य में कमनीय माधुर्य पूर्ण धारा प्रवाहित हुई। तथा साथ ही जीवन की सूक्ष्मातिसूक्ष्म एवं व्यापकता की चित्रण शक्ति भी प्रारंभ हुई। "कामायनी" जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित श्रेष्ठ कृति है। जिसमें छायावादी विशेषताओं का समन्वय देखने को मिलता है। "कामायनी" तक का सफर तय करते - करते हिन्दी काव्य को प्रेरक शक्ति काव्य के रूप में पहचान मिल गई थी। प्रसाद जी का साहित्य को कविता, नाटक, कहानी, उपन्यास के रूप में प्रदान किया गया गौरवान्वित उपहार है। जयशंकर प्रसाद जी की जीवन यात्रा मात्र 48 वर्ष की ही रही। परंतु इस अल्पकालिक सफर में ही प्रसाद जी का काव्य कौशल, रचना प्रक्रिया विभिन्न साहित्य विधाओं में पूर्णरूपेण सफल रही। कविता के क्षेत्र में नव रसानुभूतियों के प्रथम वाहक प्रसाद जी रहे। यह उनकी गहन कल्पनाशीलता ही थी जो उन्हें अनेकानेक विधाओं में विशिष्ट और उत्कृष्ट कोटि के प्रयोग करने के लिए प्रेरित करती थी। प्रसाद जी ने कहानी, नाटक, उपन्यास व कविता सभी क्षेत्रों में नए जीवन दर्शन एवं नए दृष्टिकोण की स्थापना की। उनकी कहानियों व नाटकों के चरित्र चित्रण, भाषा - सौष्ठव,वाक्य - रचना अपने आप में अद्भुत है। प्रसाद जी ने एक बार कहा भी था कि "रंगमंच नाटक के अनुकूल होना चाहिए, न कि नाटक रंगमंच के अनुकूल"। और उनका यही कथन उनके काव्य कौशल तथा रचना के आन्तरिक विधान की महत्ता को सिद्ध कर देता है। प्रेम विवाह सौंदर्य उनके काव्य की प्रमुख विषय रहे हैं। इसके अतिरिक्त प्रसाद जी ने "हंस" और "इंदु" नामक पत्रिकाओं का प्रकाशन भी कराया।
काव्यगत विशेषताएं
प्रसाद जी ने प्रेम सौंदर्य, रहस्यानुभूति, दर्शन, देशप्रेम, प्रकृति चित्रण और धर्म आदि विषयों को अभिनय और भाव के साथ अपने काव्य- प्रेमियों के समक्ष प्रस्तुत किया है।
प्रसाद जी के काव्य में जहां एक और राष्ट्रीय गौरव, देशप्रेम, स्वाभिमान के दर्शन होते हैं। वहीं दूसरी ओर प्रकृति का सौंदर्य व विकृत भयानक रूप भी देखने को मिलता है। प्रसाद जी के काव्य में प्रेम के संयोग व वियोग दोनों पक्ष से विद्यमान है। प्रेम में सूक्ष्म व व्यापक दोनों रूपों का उल्लेख हमें प्रसाद के काव्य में मिलता है। इसके अलावा प्रकृति का उद्दीपक, मानवीकृत, अलंकारिक तथा उपदेशिका रूप भी हमें काव्य में देखने को मिलता है।
रचनाएं
प्रसाद जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास और आलोचनात्मक निबंध आदि विभिन्न विधाओं में प्रसाद जी ने काव्य रचना की है।
प्रसाद जी के प्रमुख काव्य हैं -
कानन कुसुम
महाराणा का महत्व
झरना
आंसू
चित्रधार
लहर
कामायनी
प्रेम पथिक।
इनमें से "कामायनी" जयशंकर प्रसाद जी की श्रेष्ठ व कृति मूलाधार रचना है। यह खड़ी बोली में रूपक कथा काव्य हैं। "कामायनी" में मनु और श्रद्धा को आधार बनाकर मानव को हृदय (श्रद्धा) और बुद्धि (इड़ा) में समन्वय स्थापित करने का संदेश दिया गया है।
उपन्यास -
कंकाल
तितली
इरावती
नाटक -
चंद्रगुप्त
स्कंदगुप्त
ध्रुवस्वामिनी
जनमेजय का नागयज्ञ
कामना
एक घूंट
विशाख
राज्यश्री
कल्याणी
अजातशत्रु
प्रायश्चित
निबंध -
काव्य और कला
कहानी संग्रह -
छाया
प्रतिध्वनि
आकाशदीप
आँधी
इंद्रजाल
प्रसाद जी की सभी रचनाएं हिंदी साहित्य की अमूल्य गौरवनिधि है।
भाषा शैली -
प्रसाद जी की भाषा साहित्यिक, परिष्कृत व परिमार्जित है। तथा शैली परंपरागत व नव अभिव्यक्ति का सुंदर समन्वय है। इनकी भाषा ओज, प्रसाद और माधुर्य का अनूठा संगम है। भाषा विषयानुरूप तथा भावानुकूल परिवर्तित होकर कल्पना की अभिव्यक्ति को पूर्णता प्रदान करती है। प्रसाद जी के काव्य में वर्णनात्मक, भावात्मक, अलंकारिक, सूक्तिपरक, प्रतीकात्मक, लयात्मक शैली दृष्टव्य होती है। तथा वर्णनात्मक शैली चित्रात्मकता के साथ पूर्णता को प्राप्त होती है। प्रसाद जी की काव्य यात्रा में भाषा के कई रूप देखने को मिलते हैं। प्रसाद जी ने काव्य यात्रा का प्रारंभ ब्रजभाषा से किया था। तथा अपनी काव्य यात्रा के मध्य में खड़ी बोली को अपनाकर, उसे परिष्कृत संस्कृत भाषा का रूप प्रदान कर, अपने काव्य की भाषा का रूप दिया। प्रसाद जी जैसा शब्द सौष्ठव, वाक्य विन्यास और संगठित शब्द योजना अन्यत्र दुर्लभ है। प्रसाद जी की भाषा शैली ने प्रतीकात्मक शब्दावली को अपनाया है। इनकी भाषा शैली काव्यात्मक चमत्कारों से परिपूर्ण है। इनकी काव्य भाषा संगीतात्मक, लयात्मक, तथा प्रवाहमयी है। भाषा सरल, सहज, व मधुर है। सूक्ष्म भावाभिव्यक्ति के लिए प्रसाद जी ने लक्षणा व व्यंजना का आश्रय लिया है। रूपक, रूपकातिश्योक्ति, उपमा, उत्प्रेक्षा, प्रतीक आदि प्रसाद जी के प्रिय अलंकार हैं। शब्दालंकार प्रसाद जी की भाषा में सरलता से सम्मिलित हो जाते हैं।
सुविख्यात डॉ० द्वारिका प्रसाद सक्सेना जी के जयशंकर प्रसाद जी के विषय में कहा भी है कि "प्रसाद ने अपनी प्रतिभा द्वारा जो भी कृतियां प्रस्तुत की है। वे वास्तव में अनुपम और अद्वितीय है। हिंदी साहित्य की अनूठी निधियां है। और हिंदी साहित्य के ऐतिहासिक विकास में उनका अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है।

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