एक तड़प हूँ ,कसक हूँ ,दर्द हूँ मैं ,
दिल से उठकर आँखों से छलकता हूँ मैं ,
मेरा एहसास होने पर लोग कोसते हैं मुझे ,
जिससे दूर रहने की कोशिश करते हैं सब ,
एक ऐसा वक़्त हूँ मैं ,
हाँ दुःख हूँ मैं।
काश कि जान पाते सब मुझ दुःख की कहानी को ,
दुनिया ही नहीं मैं भी रोता हूँ सबकी बेरुखी से।
मुझसे भागने वालों जरा मुझको समझकर तो देखो ,
गर मैं शूल हूँ तो उगा हूँ तुम्हारी ही बोई फसल से।
कर्म की भूमि पर व्यवहार की खेती की सबने ,
अंकुरित कर वक़्त ने आकार दिया मुझे।
कर्ता के पदचिन्हों पर जो कदम बढ़ाए मैने,
पलट कर इसी मानव ने ठुकरा दिया मुझे।
अरे !मानव देख गौर से और पहचान मुझे ,
मैं दर्पण हूँ तेरे ही अतीत का।
देख अपने अक्स को मुझमें और ,
सँवार ले रूप अपने भविष्य का।
मैं नहीं रूलाता हूँ किसी को ,
मैं तो स्वयं सबकी नफरतों में जीता हूँ।
मानव प्रकट तो कर सकता हैं मुझे आँसू बहाकर ,
लेकिन मैं तो खामोशियों के घूँट पीता हूँ।
धरती भी खुद को चीरकर ही सबको हरियाली देती हैं ,
बदली भी तो गर्जन -तर्जन कर ही हमको वर्षा देती हैं।
मैं दुःख भी ऐसी ही राह हूँ अदृश्य सुख की ,
इसमें मेरा क्या कसूर जो मेरे आने पर दुनिया रो देती हैं।
गर मैं ना हूँ तो सुख का भी एहसास नहीं हैं ,
जिन्दगी की फुलवारी से,जो सुखों के फूल चुन ले ,
यकीन मानों इस दुनिया को इतनी भी परख नहीं हैं।
सब कहते हैं कि मेरे आगमन पर मानव रोता हैं ,
पर मानव शक्ति वो हैं जो मुझे भी आसानी से जीता हैं।
उन आँखों से छलकते आंसूओं पर भी मैं ही हूँ ,
जो इंसान की बेरूखी और नादानी पर रोता हूँ।
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