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एक छोटा - सा लेकिन बहुत ही प्यारा गाँव था। जहाँ उर्मि नाम की एक लड़की रहती थी। स्नेहल नैना, मुख से सुन्दर, व्यवहार से चंचल, आकर्षित काया, नव यौवना पर मन से विचलित, भाव - गम्भीर, अधरों पर मुस्कान और स्नेहल नैनों में किसी का इन्तजार। उर्मि की बस एक ही दिनचर्या होती थी। वह सुबह प्रातः काल उठकर स्नान आदि से निवृत होकर सीधा गाँव में स्थित मन्दिर में पूजा के लिए फूल चुनकर ले जाती। और फिर वहीं मन्दिर के पीछे वाले झरने के पास जाकर कल - कल - कल कर बहते पानी, रंग - बिरंगी सुन्दर तितलियों, झरनें, फूलों, चहचहाती चिड़ियों के साथ देर तक अकेले - अकेले बातें करती, और हर रोज लौटते समय शहर से गाँव को आने वाली सड़क को निहारा करती। मानों कोई आने वाला हों। वैसे तो वह सभी से हँसकर बातें करती ,खेलती ,कूदती और खिलखिलाती पर अंदर ही अंदर उसके बचपन की कुछ यादें उसे सदैव बैचेन कर जाती।
बात उन दिनों की हैं। जब उर्मि पंद्रह - सोलह साल की थी। तब वह दसवीं कक्षा में पढ़ा करती थी। आज वह जिस मंदिर के लिए प्रतिदिन फूल लेकर जाती हैं। उसी मंदिर के पुजारी श्री माणिक प्रसाद जी से उसका पिता -पुत्री जैसा स्नेह था। पंडित जी का बेटा सागर जो कि उर्मि के साथ ही दसवीं में पढ़ता था, दोनों बहुत अच्छे मित्र थे। सारा दिन साथ रहा करते थे, साथ स्कूल आते -जाते और साथ - साथ ही पढ़ाई किया करते थे।
to be continue.........................
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